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अपभ्रंश-भारती-3-4
है। यहाँ वास्तविक और काल्पनिक दोनों प्रकार की अनुभूतियों से निर्मित बिम्ब तथ्य-बोधक भावविशेष का सफल संवहन करते हैं। राजगृह नगर का नवयौवना पृथिवी की चूडामणि के रूप में कल्पना या फिर चन्द्रकान्त मणि की जलधाराओं से नगर के सुखस्पर्श स्नान करने की कल्पना अवश्य ही वस्तुबोध से सर्वथा पृथक् प्रतीक के समकक्ष सम्मूर्तन है। प्रस्तुत स्मृत रूप-विधान में राजगृह नगर के अतीत स्थापत्य की स्मृति के आधार पर नूतन वस्तु-व्यापार का विधान किया गया है और इस प्रकार महाकवि द्वारा प्रस्तुत राजगृह का इन्द्रियगम्य बिम्ब सौन्दर्यबोधक होने के साथ सातिशयकला-वरेण्य भी है।
बिम्ब-विधान मानवीकरण का ही पर्याय है और महाकवि के नागर बिम्बों में मानवीकरण की प्रचुरता है। उसके द्वारा प्रतिबिम्बित नगर के सौन्दर्य-चित्रण में स्थापत्य-तत्त्वों अथवा वास्तुचित्रण पर मानव -व्यापारों का आरोप किया गया है। मानवीकरण प्रतिबिम्बित सौन्दर्य-चित्रण की विकसित दशा है। दूसरे शब्दों में इसे हम मानवेतर प्रकृति में चेतना की स्वीकृति कह सकते हैं। इस सन्दर्भ में हम लंकानगरी का वर्णन देखें -
पढम विसंहिं लंक णिहालिय। णाइँ विलासिणि कुसुमोमालिय॥
(72.1.2) दिठु स-मोत्तिउ रावण-पंगणु।
णाई स-तारउ सरय-नहंगणु॥ वहु-मणि-कुट्टिमु वहु-रयणुज्जलु। णाइँ विसट्टउ रयणायर-जलु॥
(72.2.1-2) हसइ व रिउ-घरु मुहवय बंधुरु। विदुमयाहरु मोत्तिय दंतुरु॥ छिवइ व मत्थए मेरु-महीहरु। तुज्झु वि मज्झुवि कवणु पईहरु॥
(72.3.1-2) अर्थात् अंगद आदि वीरों ने जब लंकानगरी देखी, तब वह उन्हें फूल-मालाओं से सजी विलासिनी जैसी प्रतीत हुई।
उस नगरी में मोतियों से जड़ा, रावण के महल का प्रांगण तारक-जटित शरत्कालीन आकाश के आँगन की तरह प्रतीत हुआ। अनेक रत्नों से उज्ज्वल उस आँगन की मणिमय धरती रत्नाकर के विशिष्ट जल की तरह मालूम पड़ी।
उस नगरी में अवस्थित शत्रु (रावण) का घर अपनी भव्यता से हँसता-सा लग रहा था। उसका मुखभाग अतिशय रमणीय था। उस घर में जड़े हुए विद्रुम (मूंगा) उसके लाल अधर के समान थे और मोती उसके स्वच्छ दाँत की भाँति लगते थे। सुमेरु पर्वत जैसी अपनी ऊँचाई