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अपभ्रंश-भारती-3-4
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के रूप में इंगित करती है। जहाँ पृथ्वी नवयौवना नायिका हो और राजगृह नगर उस नायिका के शिर पर सुशोभित होनेवाली चूडामणि के समान हो, अवश्य ही पृथ्वी का यह विराट् चित्र चाक्षुष बिम्ब के उत्कृष्ट और मनोरम सौन्दर्य की सृष्टि करता है। पूरे राजगृह नगर का वर्णन बहुविध मोहक बिम्बों का अलबम या चित्राधार जैसा प्रतीत होता है। वर्णन के पूरे प्रकरण का अर्थ है -
"धन और सोने से समृद्ध राजगृह नगर ऐसा लगता है, जैसे नवयौवना पृथ्वी के शिर पर चूडामणि बाँध दी गई हो या मँगटीका नाम का गहना पहना दिया गया हो।
चार गोपुरों और चार परकोटों से घिरा राजगृह नगर मोतियों जैसे चमकते दाँतों से हँसता हुआ जान पड़ता है। गगनचुम्बी मन्दिरों पर हवा में उड़ती ध्वजाओं से वह नगर नृत्य करतासा प्रतीत होता है और ध्वजा-रूपी हथेलियों से मानो गिरते हुए आकाशपथ को धारण किये हुए है। त्रिशूल से सुशोभित मन्दिर के शिखर, उन पर बैठे कबूतरों के कूजन से गुंजित है। झूमते मदविह्वल हाथियों से वह नगर झूमता हुआ-सा प्रतीत होता है और चपलगति घोड़ों से तो ऐसा लगता है, जैसे स्वयं वह नगर उड़ रहा हो। चन्द्रकान्त मणि से रिसनेवाली जलधाराओं से वह नगर स्नान करता-सा प्रतीत होता है? वह नगर हार और मेखलाओं के भार से नत है, नूपुरों से झंकृत है और कुण्डलों से दीप्त है। वहाँ होनेवाले सार्वजनिक उत्सवों से वह नगर किलकारियाँ भरता-सा मालूम होता है । मृदंग और नगाड़े की आवाज से वह गरजता-सा लगता है, तो बालाओं द्वारा बजाई जाती वीणाओं की मूर्च्छनाओं (स्वर के आरोह-अवरोह) से वह नगर गाता-सा मालूम होता है। धन, धान्य और कंचन से तो वह नगर साक्षात् नगरपति जैसा लगता है।
पान, सुपाड़ी, कत्था, चूना आदि से बने पान के बीड़े चाबनेवालों द्वारा उगली गई पीक से उस नगर की धरती लाल हो गई है।"
प्रस्तुत वर्णन में चक्षु, स्वाद, श्रवण और स्पर्शमूलक गत्वर बिम्बों का मनोरम समाहार हुआ है। इसमें महाकवि के वर्ण-परिज्ञान या रंगबोध से निर्मित बिम्बों में ऐन्द्रियता का विनिवेश तो हुआ ही है, अभिव्यक्ति में भी व्यंजक वक्रता आ गई है। नगर के सफेद रंग से स्वच्छता का बोध होता है, जिससे सात्त्विकता टपकती है। इसीलिए महाकवि ने सात्त्विक भावों की अभिव्यक्ति के निमित्त मुक्ताहल जैसे धवल रंग को अपनाया है। महाकवि ने सफेद रंग के अलावा लाल रंग को भी मूल्य दिया है। उसने लाल रंग से राजगृह नगर के निवासियों की रसास्वादक अनुरागी प्रवृत्ति को अभिव्यक्ति दी है। महाकवि ने अपनी रचना-प्रक्रिया की कुशलता से समृद्ध, समर्थ और उत्कृष्ट बिम्बों के निर्माण में अपनी अपूर्व काव्यशक्ति का आश्चर्यकारी परिचय दिया है। स्वनिर्मित बिम्बों के माध्यम से महाकवि ने राजगृह नगर की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं श्रेष्ठतर स्थापत्यमूलक समृद्धि के साथ ही वहाँ की ललितकलापरक सांगीतिक भाव-चेतना को एकसाथ प्रतिबिम्बित कर दिया है।
प्रस्तुत सन्दर्भ में महाकवि ने स्मृति के सहारे ऐन्द्रिय दृश्य के सादृश्य पर रूपविधान तो किया ही है उपमान और अप्रस्तुत के द्वारा भी संवेदना या तीव्र भावानुभूति की प्रतिकृति निर्मित की है, जिससे उपमान और रूपकाश्रित चाक्षुष स्थापत्य-बिम्ब का हृदयावर्जनकारी समुद्भावन हुआ