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अपभ्रंश-भारती-3-4
दृष्टिगोचर होता है, जिसका रूप या आकृति से अनिवार्य सम्बन्ध होता है। इसलिए, काव्यशास्त्र के आचार्यों ने बिम्ब-विधान की प्रक्रिया को रूप-विधान की संज्ञा दी है।
बिम्बवादी आलोचकों के अनुसार विकासात्मक दृष्टि से बिम्ब के तीन रूप अधिक मान्य हैं। ये हैं -
1. वस्तुविशेष की छाया का स्पष्ट सम्मूर्तन, 2. छाया की छाया का सम्मूर्तन तथा 3. वस्तुबोध से सर्वथा पृथक् प्रतीक के समकक्ष सम्मूर्तन।
तीसरे रूप को हम भावबिम्ब भी कह सकते हैं। बिम्ब-सौन्दर्य की दृष्टि से यह भावबिम्ब अपना अधिक कलात्मक मूल्य रखता है।
बिम्ब-विधान के उक्त परिवेश में अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू के बिम्बबहुल महाकाव्य 'पउमचरिउ' का अध्ययन अतिशय रुचि और महार्घ सिद्ध होता है। यों, 'पउमचरिउ' की बिम्बात्मक सौन्दर्य-चेतना का अध्ययन एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध का विषय है? हम यहाँ उस कालोत्तीर्ण महाकाव्य में चित्रित दो-एक प्रमुख नगरों के बिम्ब-सौन्दर्य के विवेचन तक ही सीमित रहेंगे।
महाकवि स्वयम्भू द्वारा प्रस्तुत नगर से सम्बद्ध बिम्ब मूर्ति, स्थापत्य एवं चित्रकला से विशेष प्रभावित हैं, जिनमें सौन्दर्य, कल्पना और प्रतीकों का मनोहारी विनियोग हुआ है। महाकवि ने राजगृह का बिम्बात्मक वर्णन इस प्रकार किया है -
तहिं तं पट्टणु रायगिहु धण-कणय-समिद्ध। णं पिहि विएँ णव-जोव्वणएँ सिरे सेहरु आइद्धउ॥
चउ-गोउर-चउ-पायारवंतु। हसइ व मुत्ताहल-धवल दंतु॥ णच्चइ व मरुद्धय-धय-करग्गु। धरइ व णिवडंतउ गयण-मग्गु॥ सूलग्ग-मिण्ण-देवउल-सिहरु। कणइ व पारावय-सह-गहिरु॥ घुम्मइ व गऍहि मय-भिम्मलेहिं। उड्डुइ व तुरंगहिं चंचलेहिं॥ पहाइ व ससिकंत-जलोहरेहिं। पणवइ व हार-मेहल-भरेहिं॥ पक्खलइ व णेउर-णियलएहिं। विप्फुरइ व कुंडल-जुयलएहिं॥ किलिकिलिइ व सव्वणुच्छवेण। गज्जइ व मुरव-भेरी-रवेण॥ गायइ वालाविणि-मुच्छणेहिं। पुरवइ व धण्ण-धण-कंचनेहिं॥ णिवडिय-पण्णेहिं फोफ्फलेंहिं छुहचुण्णासंगें। जण-चलणग्ग-विमदिऍण महि रंगिय रंगें।
(1.4.9; 1.5.1-9) प्रस्तुत नगर-वर्णन में महाकवि के बिम्ब-विधान का प्रकर्ष उसके उदात्त बिम्बों में निहित है, जहाँ वर्ण्य और आलम्बन की असीम या अमेय रूप-कल्पना, अपने विराट् चित्रफलक के कारण, चित्त को विस्मय में डालनेवाली अप्रस्तुत-प्रतीति को नायिका और उसकी शिरोमणि