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अपभ्रंश-भारती-3-4
जनवरी-जुलाई-1993
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महाकवि स्वयम्भू का नागर-बिम्ब सौन्दर्य
- डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
आधुनिक आलोचनाशास्त्र काव्य में बिम्ब-सौन्दर्य को सातिशय महत्त्व देता है। वस्तुतः बिम्ब कवि-कल्पना का काव्यभाषिक विनियोग है। बिम्ब के माध्यम से ही कल्पना रूपायित होती है और सौन्दर्य में मुखरता आती है, साथ ही बिम्ब से ही कल्पना और सौन्दर्य को अभिनवता भी प्राप्त होती है। काव्य में ग्राह्यता या सम्प्रेषणीयता के गुणों का आधान बिम्ब-विधान से ही सम्भव है। बिम्ब को हम प्रभाव की प्रतिकृति भी कह सकते हैं। जो कवि रचना-प्रक्रिया में जितना कुशल होता है समर्थ बिम्बों के निर्माण में वह उतना ही निपुण होता है।
समर्थ और उत्कृष्ट काव्य-बिम्बों में ऐन्द्रियता और संवेदनों को उबुद्ध करने की ततोऽधिक क्षमता होती है। इसलिए, जो बिम्ब जितने समर्थ और उत्कृष्ट होते हैं, वे कवि के चिन्तन या उसकी सिसृक्षा के उतने ही सफल और सक्षम संवाहक होते हैं। उत्कृष्ट बिम्बों में साधारणीकरण की भी अद्भुत योग्यता होती है। उत्कृष्ट बिम्ब वर्ण्य विषय में निहित संवेग को मूर्त करके, उससे सभी संवेदनशील सहृदय-हृदय भावकों को अभिभत कर देता है। संवेग का यह साधारणीकरण ही बिम्ब-विधान की चरम सफलता का परिचायक है।
बिम्बात्मक काव्यकला मूलतः श्रव्यकला होती है, जिसमें स्थापत्य, मूर्ति और चित्रकला, अर्थात् दृश्य या चाक्षुषकला (ऑप्टिक इमेज) के तत्त्व अधिक रहते हैं; क्योंकि बिम्ब प्रायः