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अपभ्रंश-भारती-3-4
हुए, अन्य राज्य तो मोह के बन्धन हैं। दारिकपा की महासुखवादपरक रहस्यमयी कविता द्रष्टव्य है -
सुन कुरुण रे अभिनचारें काअवाचिएँ। विलसइ दारिक गअणत पारिमकुलें। किन्तो मन्ते किन्तो तन्ते किन्तो रे झाण वखाणे। अपइठान महासुहलीलें दुलक्ख परमनिवाणे॥ राआ राआ राआरे अवर राअ मेहि रे बाधा। लुइपाअ पए दारिक द्वादश भुअणे लाधा॥
(चर्या. 34) कृष्णपा अर्थात् कण्हपा आगम, वेद, पुराण और पंडितों की निन्दा करते हुए कहते हैं, यथा -
लोअह गब्ब समुब्बहइ, हउँ परमत्थ पवीण। कोडिअ मझे एक जइ, होइ णिरंजण लीण॥ आगम वेअ पुराणे (ही), पण्डिअ माण वहन्ति।
पक्क सिरीफले अलिअ जिम बाहेरीअ भमन्ति॥ अर्थात् व्यर्थ ही मनुष्य गर्व में डूबा रहता है और समझता है कि मैं परमार्थ में प्रवीण हूँ। करोड़ों में से कोई एक निरंजन में लीन होता है। आगम, वेद, पुराणों से पण्डित अभिमानी बनते हैं, किन्तु वे पक्व श्रीफल के बाहर ही बाहर चक्कर काटते हुए भौंरे के समान आगमादि के बाह्यार्थ में ही उलझे रहते हैं । कण्हपा मेरु गिरि शिखर पर ही महासुख का आवास बताते हैं। वहाँ पहुँचना बड़ा कठिन है। यहीं सहज सुख की भावना देखी जाती है, यथा -
वरगिरि सिहर उत्तुंग थलि शबरे जहिं किअवास। णउ लंघिअ पंचाननेहिं करिवर इरिअ आस॥
(अपभ्रंश पाठावली, प्रो. मोदी, पृष्ठ 148) अर्थात् महासुखरूपी शबर ने मेरुगिरि पर वास कर लिया है, वहाँ न सिंह जा सकता है और न हाथी का कोई बस चलता है। तब साधारणजन की क्या गति हो सकती है?
चर्यागीतों में सिद्धों ने अपने भावों में प्रायः रूपकों का सहारा लिया है। ढेंढणपा कहते हैं - "नितेनिते षियाला सिहै समजूझ। ढेण्ढणपाएर गीत विरले बूझइ" (चर्या. 41)।इसीतरह ताड़कपा भी संकेत करते हैं - "जो बूझइ ता गले गलपाश" (चर्या. 45)। सिद्धों की रचना में इसीप्रकार की भावना एवं रूपकों का प्रयोग मिलता है। उन्होंने उपमानों के नए प्रयोग किए हैं, यथा - तरुवर-काया, चित्त तथा सृष्टि विस्तार के लिए; करम-मन के लिए; मूषक-मन, वाण; शर-गुरुवचन आदि आदि के लिए प्रयुक्त हुए हैं सिद्धों ने प्रायः व्यावहारिक जीवन के पदार्थों को ही अपने रूपकों का उपकरण बनाया है। प्रधान रूपक इसप्रकार हैं - नौका का रूपक, कान्ह, डोम्बी, कम्बलाम्बर और सरंह ने क्रमश: चर्या. 13, 14, 38, 8 में लिया