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________________ 40 अपभ्रंश-भारती-3-4 महासुख की प्राप्ति से संसार के दुःख नष्ट हो जाते हैं और ज्ञानप्रकाश का उदय होता है। सरह कहते हैं - घोरान्धएं चन्दमणि जिम उज्जोअ करे।। परम महासुह एक्कुखणे दुरिआसेस हरेइ॥ (दोहाकोश, 97) परमसुख में मग्न होने की इस लोकातीत दशा का बड़े भावुक ढंग से वर्णन कण्हपा ने किया है, यथा - चेअन न वेअन भर निद गेला सअल सुफल करि सुहे सुतेला स्वपने मइँ देखिल तिहुअन सुण्ण घोरिअ अवनागवन विहुन। (चर्या. 36) अर्थात् सहजानन्द योगनिद्रा में चेतना, वेदना कुछ नहीं रही है। जगत के सब व्यापारों को समाप्त करके वे ज्ञाननिद्रा को प्राप्त हुए हैं। स्वप्नवत् सब जगत अलीक दिखता है, त्रिभुवन शून्यमय दिखता है। जन्ममरण से वे मुक्त हो गए हैं। विरुपाद (चर्या. 3), गंडरीपाद (चर्या. 4), धामपाद (चर्या. 47), जयनन्दीपाद (चर्या. 46), कंकणपाद (चर्या. 45), ताड़कपाद (चर्या.37), महीधरपाद (चर्या.16) आदि ने इसप्रकार की अनुभूति का वर्णन किया है। शान्तिपा रुई को धुनने के रूपक द्वारा शून्यता को प्राप्त करने की बात कहते हैं, यथा - तुला धुणिधुणि आँसुरे आँसु आँसु धुणि धुणि णिखर सेसु तुला धुणि धुणि सुणे अहारिउ पुण लइआ अपणा चटारिउ बहल बढ़ दुइ मार न दिशअ शान्ति भणइ बालाग न पइसअ काज न कारण ज एह जुगति सअ संवेअण बोलथि सान्ति (चर्या. 26) अर्थात् रुई को धुनते-धुनते उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश-रेशे निकालते चलो फिर भी उसका कारण दृष्टिगत नहीं होता। उसको अंश-अंश रूप से विभाजन और विश्लेषण कर देने पर अन्त में कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता अपितु अनुभव होने लगता है कि रुई शून्यता को प्राप्त हो गई। इसीप्रकार चित्त को भलीभाँति धुनने पर भी उसके कारण का परिज्ञान नहीं होता। उसे समग्र वृत्तियों से रहित और नि:स्वभाव कर शून्य तत्त्व को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। शून्य करुणा की अभिन्नता से दारिकपा गगन के परम पार तट पर विलास करते हैं। तंत्र, मन्त्र, ध्यान, व्याख्यान सबको व्यर्थ समझते हैं। इस अवस्था में पहुँचकर ही वह वास्तव में राजा
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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