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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 उजुरे उजु छाडि मा लेह रे बंक निअडि बोहि आ जाहुरे लांक हाथेर कांकन आ लेउ दापन अपने अपा बुज्ञत निअमन (चर्या. 32) अर्थात् सीधे को छोड़कर टेढ़े को मत अपनाओ, बोधिनिकट है, दूर मत जाओ, हाथ में कंगन है, दर्पण मत लो, आत्मा को जानो। चित्र को तथा शरीर की वृत्तियों के शमन का सिद्धों ने बार-बार उल्लेख किया है। भूसुक, आनन्द की स्थिति इस काव्य और चित्त से परे बताते हैं, यथा हरिणी बोलइ हरिणा सुन तो ए वन छाडि होहु भान्तो भवतरंगे हरिणार खर न दीसइ भूसुक भणइ मूढ़ हिअहिण पइसइ। (चर्या. 8) अर्थात् हरिणी नैरात्मा कहती है - ए हरिण-चित्त! सुनो। इस वनकायरूपी चित्त को छोड़कर अन्यत्र भ्रमण करो। संसार के त्रास से हरिण के खुर नहीं दिखते। भूसुक कहते हैं - मूर्ख के हृदय में यह तत्त्व नहीं प्रवेश करता। लुइपा चित्त की चंचलता का उल्लेख करते हैं और साथ ही जगत को, जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र के समान न झूठ कहते हैं न सत्य। यह सहजसुख श्रेष्ठ आनंद है। सिद्धों ने इस आनन्द की प्राप्ति के लिए गुरु के महत्त्व को स्वीकारा है। सरह ने शास्त्रों को मरुस्थल कहा है और गुरु की वाणी को अमृत रस की संज्ञा दी है, यथा - गुरुवअण अमियरस, धवडि ण पिविअड जेहिं। वहु सात्तात्थ मरुत्थलेहिं, तिसिअ मरिब्बो तेहिं॥ (दोहाकोश, पृष्ठ 12) अर्थात् जो गुरु की वाणी के अमृतरस को नहीं पीता है वह शास्त्ररूपी मरुस्थल की भूमि में तृषातुर होकर मरता है। जगत के मायाजाल से सद्गुरु ही मुक्ति दिला सकते हैं। ____ भूसुक कहते हैं - माआजालपसरिउरे बाधेलि माआहरिणी। सद्गुरु बोहे बूझि रे कासु कहिनि। (चर्या. 10) कण्हपा का मानना है कि मन और इन्द्रियों का प्रसार गुरु की कृपा से ही नष्ट हो सकता है। मन-वृक्ष की पाँच इन्द्रियाँ शाखाएँ हैं, आशादि फल और पत्ते हैं। गुरुवचन-कुठार से काटने पर फिर यह वृक्ष हरा नहीं होता।" तिलोपा ने अपने पदों में अनेक बार गुरु की आवश्यकता को जताया है। दारिकपा गुरु की आज्ञा से विषयेन्द्रियों का सुख भी वर्जित नहीं मानते हैं।"
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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