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अपभ्रंश-भारती-3-4
जनवरी-जुलाई-1993
सिद्धों के अपभ्रंश साहित्य का
विवेचनात्मक अध्ययन
- डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति'
__ आठवीं शती से चौदहवीं शती तक सिद्धों की दीर्घपरम्परा मिलती है। सिद्ध लोग पहले बौद्ध थे, बाद में वे नाथपंथी बनकर शैव हो गए। वस्तुतः शैव और शाक्त सिद्धों की पृथक् परम्परा बौद्ध सहजयानी और वज्रयानी सिद्ध परम्परा में से निकली और नाथ सिद्धों के नाम से प्रसिद्ध हुई। बौद्धधर्म की महायान शाखा की परिणति वज्रयान, मंत्रयान, कालचक्रयान, सहजयान, तंत्रयान आदि के रूप में हुई। बौद्ध सिद्धाचार्यों ने वज्रयान आदि 'यानों' के सिद्धान्तों की व्याख्या के लिए अपभ्रंश को भी माध्यम बनाया। इस सम्प्रदाय के सिद्धों की जो अपभ्रंश रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनका विशेष अध्ययन एवं संग्रह पंडित हरप्रसाद शास्त्री', सुनीतिकुमार चटर्जी', डॉ. शहीदुल्ला', डॉ. प्रबोधचंद बागची , डॉ. सुकुमार सेन', राहुल सांकृत्यायन आदि सुविज्ञों ने किया। ___ अपभ्रंश का पूर्वी धार्मिक साहित्य सिद्ध साहित्य है। यद्यपि यह अत्यन्त अल्पमात्रा में उपलब्ध है तथापि अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। इसका क्षेत्र प्रायः प्राचीन बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार है। सिद्धों की संख्या चौरासी मानी गई है। इनमें केवल दस प्रमुख हैं - (i) सरहपा (ii) शबरपा (iii) लुईपा (iv) विरूपा (v) दारिकपा (vi) घंटापा (vii) जलंधरपा (viii) डोंविपा (ix) कण्हपा (x) तिलोपा। 'पा' आदरार्थक 'पाद' का अपभ्रंश रूप है। सिद्धों में कण्हपा का नाम विशेष महत्त्व का है। आज भी नेपाल में वज्रयानी बौद्ध अपनी रहस्य पूजा के समय जो