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________________ 36 अपभ्रंश-भारती-3-4 जा सेउण-देसहाँ अमिय-धार पुणु दिट्ठ महाणइ तुङ्गभद्द। करि-मयर-मच्छ-ओहर-रउद्द। घत्ता - असहन्तें वणदव-पवण-झड दूसह-किरण-दिवायरहों। ___णं सौ सुट्ठ तिसाइऍण जीह पसारिय सायरहों। x पुणु दिट्ठ पवाहिणि किण्हवण्ण। किविणत्थ-पउत्ति व महि-णिसण्ण। पुणु इन्दणील-कण्ठिय-धरेण। दक्खविय समुद्दहों आयरेण। पुणु सरि भीमरहि जलोह-फार। जा सेउण-देसहों अमिय-धार। पुणु गोला-णइ मन्थर-पवाह। सझेण पसारिय णाई वाह। -पउमचरिउ 69.5-6 फिर उन्हें तुंगभद्रा नामक महानदी मिली, जो हाथियों, मगरमच्छ और ओहरों से अत्यन्त भयानक थी। वह ऐसी लगती थी, मानो संध्या असह्य-किरण सूर्य की सीमान्ती हवाओं को सहन नहीं कर सकी और प्यास के कारण उसने सागर की ओर अपनी जीभ फैला दी हो । धरती पर बहती हुई काले रंग की वह नदी ऐसी लगी मानो किसी कंजूस की उक्ति हो। मानो इन्द्रनीलपर्वत ने आदरपूर्वक उसे समुद्र का रास्ता दिखाया हो। अपने जलसमूह के विस्तार के साथ वह नदी घूम रही थी, वह नदी जो सेउण देश के लिए अमृत की धारा थी। फिर उन्हें गोदावरी नदी दिखाई दी, जो ऐसी लगती थी मानो सन्ध्या ने अपनी बाँह फैला दी हो । - अनु. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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