SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 33 अभिव्यंजना अनेक गुह्य बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से मुखर हुई है। 'चर्यागीतिकोष' तथा 'दोहाकोष' में सर्वप्रथम इन बौद्ध सिद्ध कवियों की रचनाओं का संग्रह सुलभ हुआ। बौद्ध सिद्धों के रहस्यमय गीतों एवं दोहों के संग्रह-संकलन एवं अनुसंधान का श्रेय मुख्यतः महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. शहीदुल्ला, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची तथा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को है। राहुलजी ने 'हिन्दी काव्यधारा' के अन्तर्गत इनकी वाणी को व्यवस्थित परिचय-विवरण के साथ प्रकाशित किया। तिब्बती परम्परा के अनुसार इन वज्रयानी सिद्धों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है पर प्राप्त वाणियों में चौबीस सिद्धों की रचनाएँ संकलित हैं जिनमें रहस्यवाद की दृष्टि से सरहपा, शबरपा, भुसुकुपा, लुईपा, विरूपा, डोम्बिपा, दारिकपा, गुंडरीपा, कण्हपा तिलोपा और शान्तिपा इत्यादि के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। अपभ्रंश के सिद्ध कवियों में सरहपा प्राचीनतम रहस्यवादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिनकी रचनाओं में महासुखवाद' और सहजानन्द के अमृतरस की अनुभूति की बड़ी मार्मिक अभिव्यंजना हुई है। सरहपा ने इस सहजानन्द को अनिर्वचनीय माना है। वह सर्वथा स्वसंवेद्य अनुभूति है - अलिओ धम्म-महासुह पइसइ। लवणो जिमि पाणीहि विलिज्जइ॥2 णउ तं बाअहि गुसु कहइ, उ तं बुज्झइ सीस। सहजामिअ-रसु सअल जगु, कासु कहिजइ कीस॥" सअ-संवित्ती तत्तफलु, सरहापाअ भणन्ति। जो मण-गोअर पाविअइ, स परमत्थ ण होन्ति॥4 सरहपा की दृष्टि में संयोग द्वारा निर्वाण और महासुख की संसिद्धि सम्भव है - 'संभोग'समाधि के माध्यम से महासुखानुभूति की यह धारणा तान्त्रिक साधना-प्रणाली से प्रेरित एवं प्रभावित है। वस्तुतः उनकी यह रहस्यात्मक अनुभूति भावाभावविलक्षण अवाङ्मनसगोचर अतीन्द्रिय संचरणभूमि पर प्रतिष्ठित है। वे चित्त की उस परममहासुख की मधुमती भूमि पर विश्राम करने का उपदेश देते हैं जहाँ मन, पवन, रवि, शशि - किसी की गति - किसी का प्रवेश नहीं है - जहि मण पवण ण संचरड, रवि ससि णाइ पवेस। तहि वढ ! चित्त विसाम करु, सरहें कहिअ उएस015 आइ ण अन्त ण मज्झ णउ, णउ भव णउ णिब्वाण। एँहु सो परममहासुह, णउ पर णउ अप्पाण॥" । 'कमल - कुलिश' (शून्य और करुणा के द्योतक) के प्रतीकों द्वारा सरहपा ने सहजानन्द की रमण-स्थिति का सुन्दर संकेत किया है - कमल कुलिस वेवि मज्झठिउ जो सो सुरत विलास। को न रमइ णह तिहुअणहि कस्स ण पूरह आस॥" ., भुसुकुपा सहजानन्द की स्थिति को काय और चित्त से परे बताते हुए नैरात्मा में 'हरिणी' तथा चित्त में 'हरिण' का और 'काया' में 'वन' का आरोप करते हैं। चित्त
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy