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अपभ्रंश-भारती-3-4
जो परमप्पउ परम-पउ हरि-हर-बंभुवि बुद्ध।
परम-पयासु भणंति मुणि, सो जिण-देउ विशुद्ध। आत्मा और परमात्मा के ऐक्य की अनुभूति रहस्यवाद का प्राणतत्त्व रहा है, इसकी आध्यात्मिक अनुभूति की झलक कवि की निम्नलिखित उक्ति में द्रष्टव्य है -
जो परमप्पा सो जि हउं, जो हंउ सो परमप्यु।
इउ जाणे विणु जोइया; अण्णु म करहु वियप्पु॥' सभी देवों के प्रति कवि की समान श्रद्धा है, सभी परमदेव के रूप हैं -
सो सिउ संकरु विण्हु सो; सो रुद्द वि सो बुद्ध।
सो जिणु ईसरु बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध। वही शिव-शंकर, वही विष्णु, वही रुद्र, वही बुद्ध, वही जिन, वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही अनन्त और वही सिद्ध के नाम से अभिहित है। यह समन्वय-भावना रहस्यवादी जैन मुनियों की व्यापक मनोवृत्ति की परिचायक है।
महाणंदि कहते हैं कि देह में सूक्ष्मरूप से वास करनेवाले परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, शिव भी नहीं जानते, गुरु-कृपा से ही उसका बोध सम्भव है, सहज समाधि के द्वारा ही उस परमतत्त्व की अनुभूति होती है -
जिम वइसाणर कटढ महि, कुसुमइ, परिमलु होइ। तिहं देहमइ वसइ जिव, आणंदा, विरला बूझइ कोइ॥' हरि-हर वंभु वि सिव कही, मणु बुद्धि लखिउ ण जाही। मध्य सरीरहे सो वसइ, आणंदा लीजहिं गुरुहिं पसाई॥ सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ। अप्पहं करि परिहारु।
सहज समाधि हिं जाणियइ आणंदा, जे जिय सासणि सारु॥" इस प्रकार जैन अपभ्रंश कवियों द्वारा प्रतिपादित रहस्यवाद में सभी अन्य साधना प्रणालियों एवं मान्यताओं के प्रति उदारता है। रूढिबद्धता के प्रति विरोध होते हुए भी स्वर में कटुता का अभाव है। आत्मा एवं परमात्मा के ऐक्य की भावना में रमते हुए उन्होंने आध्यात्मिक आनन्द को सामरस्य एवं सहजानन्द की संज्ञा देते हुए सहज समाधि द्वारा उसे सम्भव माना है। साथ ही यत्र-तत्र आत्मा-परमात्मा में रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रिया-प्रियतम के माधुर्य भाव की भी झलक विद्यमान है। देह मन्दिर में ही परमात्मा के साक्षात्कार की धारणा जैन अपभ्रंश काव्य की एक व्यापक विशेषता है जिसकी प्रेरणा अनेक परवर्ती सूफी-सन्त-भक्त कवियों की रहस्यभावना में अक्षुण्ण रही है।
बौद्ध सिद्ध कवियों की अपभ्रंश काव्यधारा में चर्चित एवं अभिव्यक्त रहस्यवाद बौद्धधर्म की महायान शाखा से सम्बन्धित वज्रयान, मंत्रयान, सहजयान तथा तान्त्रिक शाक्त-साधना से अनेक अंशों में प्रेरित एवं प्रभावित रहा है यद्यपि उनकी सहजानभति की तीव्रता में अपनी निजी मौलिक उद्भावनाओं की स्वच्छन्दता विद्यमान है। उनकी वाणियों में 'महासुखवाद' की