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अपभ्रंश - भारती - 3-4
आत्मविश्वासमयी और सम्मादनमयी मधुमती भावभूमि ने ही अनेक परवर्ती निर्गुणिया सन्तों की तीव्र आध्यात्मिक चेतना को परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप में प्रेरित एवं प्रभावित किया है। अपनी रहस्यमयी अनुभूतियों को गोपनीयता एवं रमणीयता प्रदान करते हुए इन अपभ्रंश कवियों ने उन्हें अनेक अटपटे एवं आश्चर्यजनक बिम्बों एवं प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है जिससे यत्र-तत्र उनकी वाणी संश्लिष्ट एवं गूढ़ार्थपरक हो गई है।
जैन अपभ्रंश काव्यधारा में रहस्यवाद का पुट जिन कृतियों में विशेष रूप में वर्तमान है उनमें मुनि रामसिंहकृत 'पाहुड दोहा', जोइन्दु ( योगीन्द्र) की 'परमात्म प्रकाश' और 'योगसार', सुप्रभाचार्य की 'वैराग्यसार' और महार्णान्दि की 'आनन्दा' प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।
'पाहुड दोहा' की रहस्यात्मक उक्तियाँ अध्यात्म चिन्तन से परिपूर्ण हैं जिनमें आत्मानुभूति की रमणीयता और चित्त की तन्मयता की मार्मिक अभिव्यंजना हुई है । कवि की दृष्टि में आत्मलीनता ही वास्तविक पूजा है
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मणु मिलियउ परमेसरहो परमेसर जि मणस्स । विणि वि समरसि हुइ रहिय, पुंज चडावडं कस्सा ॥' मूढ़ा जोवइ देवलई लोयहिं जाई कियाई । देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाई ॥
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'मन परमेश्वर में मिल गया है और परमेश्वर मन में। दोनों ही समरस हो रहे हैं फिर किसकी पूजा करूँ ?' मूर्ख लोग वाह्य देवालय देखते हैं पर देह मन्दिर को नहीं पहचानते जहाँ शान्त शिव स्थित हैं । "
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अन्यत्र कवि अपनी सगुण सत्ता की नारी रूप में भावना करते हुए 'निर्गुण' प्रियतम से सम्मिलन की लालसा का संकेत करता है
हउँ सगुणी पिउ णिग्गुणउ, पिलाक्खण णी संगु । एकहिं अंगि वसंतयह मिलिउ ण अंगहिं अंगु ॥ ३
'जोइन्दु' का अनुभव है कि ज्ञानी के निर्मल मन में अनादि देव निवास करते हैं जैसे सरोवर में हंस लीन रहते हैं। उनकी दृष्टि में अक्षय ज्ञानमय निरंजन शिव न तो देवालय में; न शिला में, न लेप में, न चित्र में - वे तो समचित्त अर्थात् समरसता में स्थित रहते हैं -
णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ, णिवसइ देउ अणाइ । हंसा सरवरि लीणु जिम, महु एहउ पडिहाइ ॥
देउ देउ देउले वि सिलएँ, णवि लिप्पड़ णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ, सिउ संठिउ सम चित्ति ॥
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अन्यत्र वे कहते हैं कि जो परमात्मा, परमपद, हरि-हर - ब्रह्मा बुद्ध हैं वे ही परमप्रकाशमय विशुद्ध जिनदेव हैं, इस प्रकार जिनदेव को परम देव मानते हुए उनसे अन्य आराध्यों का तादात्म्य स्थापित किया गया है