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अपभ्रंश - भारती - 3-4
विशेषत: वैष्णव उपासकों की भारतीय परम्परा, यूनानी-रोमन दार्शनिकों, ईसाई सन्तों, यूरोपीय स्वच्छन्दतावादी कलाकारों की पाश्चात्य धारा तथा ईरान- अरब के सूफी फकीरों एवं प्रेमाख्यानकारों की साझी परम्परा में रहस्यवाद के विविध रूपों और स्तरों का निर्वाह होता रहा है। प्राचीन ऋषियों से आधुनिक साधकों एवं कवियों तक की वाणी विशिष्ट देश, काल एवं प्रवृत्ति के अनुरूप रहस्यभावना से अनुप्राणित रही है। वैदिक वाङ्मय के "कस्मै देवाय हविषा विधेय?" (किस देव के प्रति हवि द्वारा आराधन करें ?) जैसे मन्त्र - वाक्यों से लेकर आधुनिक कवयित्री की 'कौन तुम मेरे हृदय में ?' जैसे प्रगीतात्मक उद्गारों तक में रहस्यवाद का भावात्मक स्वर मुखर रहा है 1
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रहस्यवाद की मूल चेतना आध्यात्मिक रही है और उसकी प्रमुख भावना रागात्मक । उस चरम लक्ष्य परम सत्ता से तादात्म्य रहा है और उसका सहज माध्यम हृदय का प्रेमतत्त्वं । रहस्यवाद का विकास दर्शन, साधना और काव्य के विविध स्तरों पर बहुमुखी धाराओं में प्रवाहित हुआ है पर उसके दो रूप भारतीय वाङ्मय में प्रबल रहे हैं - (1) साधनात्मक रहस्यवाद और (2) भावनात्मक रहस्यवाद । प्रथम की प्रवृत्ति ज्ञानपरक अध्यात्म-साधना की गूढ़ एवं अतीन्द्रिय सम्बोधि में प्रतिष्ठित रही है और दूसरे रूप की संचरणभूमि मुख्यतः प्रेमपरक भक्तिभावना की सरस एवं सौन्दर्यमय साक्षात्कारमयी अनुभूति में रमती रही है। अपभ्रंश काव्य में अभिव्यक्त रहस्यवाद की धारा मूलत: साधनात्मक है जिसमें गुह्य एवं सूक्ष्म संबोधिपरक संसिद्धियों का सांकेतिक उद्घाटन हुआ है। भावनात्मक रहस्यवाद का स्वरूप विशेषतः वैष्णव सन्तों- भक्तों, सूफी प्रेमाख्यानकारों तथा स्वच्छन्द प्रेम के मर्मी गायकों की वाणियों में उजागर हुआ है। अपभ्रंश काव्यधारा के अधिकांश कवि नैरात्म्यवादी जैन साधु, बौद्ध सिद्ध एवं शाक्त तन्त्र-साधना से प्रभावित रहे हैं अतः उनमें भावनात्मक रहस्यवाद का स्वर नगण्य रहा।
अपभ्रंश काव्य में रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की मूल प्रेरणा जैन मुनियों की शान्त रसमयी ध्यान-दशा तथा बौद्ध सिद्धों की अनूठी मादनमयी 'महासुखानुभूति' से अनुप्राणित है। जैन अपभ्रंश काव्य में रहस्यवाद का स्वर अधिकांशतः बोधपरक रहा है और बौद्ध सिद्धों की वाणियों में सहजानन्दपरक जिसकी अनुभूति अनेक अटपटे बिम्बों एवं प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यंजित हुई है । इसीलिए अपभ्रंश के जैन कवियों की रहस्यभावना में आध्यात्मिक सन्देश की प्रवृत्ति रही है और बौद्ध सिद्ध कवियों के रहस्यवाद में लोकोत्तर ऐकान्तिक सहजानन्दानुभूति के उद्दाम उन्मेष की ।
अपभ्रंश की रहस्यवादी काव्यधारा की एक मौलिक विशेषता यह रही है कि उसमें सन्तों, सूफियों एवं वैष्णवों के रहस्यवाद व्याप्त प्रेम-विरह-वेदना की छाप नहीं है। लोक के प्रति विराग एवं उदासीनता का स्वर भी उसमें मुखर नहीं। एक प्रकार के सामरस्य की सहजानुभूति उनकी वाणी में गूँजती रही है जिसमें आर्त वियोगी की पुकार नहीं वरन् सहजयोगी की फक्कड़पनभरी ' मस्ती का आलम' विद्यमान है। जैन कवियों की सन्तुलित अनासक्ति प्रवृत्ति के कारण उनमें इस प्रकार की मस्ती की प्रगाढ़ता विरल एवं नगण्य है । अवाङ्मनसगोचर परमप्रज्ञामयी महासुखानुभूति के असीम व्योम में संचरण करनेवाले बौद्ध सिद्धों की यह अद्भुत