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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 जनवरी-जुलाई-1993 20 अपभ्रंश काव्य में रहस्यवाद - डॉ.देवकीनन्दन श्रीवास्तव प्रत्यक्ष ससीम सत्ता के मूल में विद्यमान परोक्ष असीम परम सत्ता की विस्मयभरी जिज्ञासा, अनुरागरञ्जित खोज एवं आनन्दमयी ऐकान्तिक अनुभूति की सांकेतिक अभिव्यक्ति ही काव्य में रहस्यवाद की संज्ञा धारण करती है। प्रकृति के नाना गोचर व्यापारों के आवरण में नियति के अनेक अद्भुत आयामों के अवगुण्ठन में गुह्य रूप से झाँकती हुई सूक्ष्म एवं दिव्य शक्तियों के प्रति एक कुतूहल और आकर्षण इस रहस्यभावना की मनोवैज्ञानिक प्रेरणाभूमि है। क्षणिक एवं सान्त दृश्यों एवं तथ्यों के वैचित्र्य एवं वैविध्य के पीछे कहीं हमारी ऐन्द्रिय बोधशक्ति की क्षमताओं से परे एक शाश्वत एवं अनन्त परात्पर ऋतम्भर सत्य प्रतिष्ठित है जिसके सच्चिदानन्दमय परम स्रोत का आविर्भाव-तिरोभाव निरन्तर हो रहा है। अणु-अणु परमाणुपरमाणु के सारे स्पन्दन उसी अवाङ्मनसगोचर वैश्व और साथ ही विश्वातीत परम की चिद्विलासमयी लीला के स्फुरण हैं। इस अतीन्द्रिय भावलोक के परम व्योम में संचरण की असामान्य साधना के द्वारा ही उस विराट सत्य का साक्षात्कार सम्भव है जिसकी अभिव्यंजना रहस्यवाद में चरितार्थ होती है। रहस्यवाद की आधारशिला मूलत: आध्यात्मिक चेतना की भावभूमि पर प्रतिष्ठित है । यद्यपि कालान्तर में दर्शन, काव्य और साधना के क्षेत्र में चिन्तन और अनुभूति के अनेक नवीन आयाम इस दिशा में विकसित होते रहे। वैदिक ऋषियों, जैन-बौद्ध-शैव-शाक्त-सिद्धों, सन्तों-भक्तों -
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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