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अपभ्रंश-भारती - 3-4
कर जाता है। उसके द्वारा निर्मित काव्य- मानदण्डों को छूने का साहस किसी रचनाकार को हुआ, कह नहीं सकता। क्योंकि विरह काव्य को बिना भक्ति का आश्रय लिए अश्लीलता से बचाकर उसे उच्च आसन पर बिठा पाना केवल अब्दुल रहमान के ही वश की बात रही है। और यह काव्य भी क्षणार्द्ध भर का काव्य क्योंकि
जे अचिंत कज्जु तस सिद्धु खणद्धि महंतु
यह अंतिम पंक्ति की परिकल्पना कवि की अपनी परिकल्पना मात्र नहीं अपितु वह काव्य का अनोखा आधार है, वह सहारा है जिसके द्वारा रचनाकार विरही मन के कोने-कोने को झाँक आता है। और अंत में मैं राहुलजी के शब्दों को दुहराते हुए पुन: कहूँगा कि मेघदूत के पश्चात् भारतीय साहित्य में और हिन्दी में यह पहला अनूठा संदेश काव्य है। आप चाहें तो प्रबंधत्व का आनंद लें या चाहें तो मुक्तक का ।
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1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, भाग - 3, पृष्ठ 34।
2. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, भाग - 3, पृष्ठ 38 ।
3. वही, पृष्ठ 38 ।
4. ग्रियर्सन, भारतीय भाषा का सर्वेक्षण, भूमिका, पृष्ठ 42-431
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी