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अपभ्रंश - भारती - 3-4
उतावली को प्रस्तुत कर दिया। पर उतावली में किया गया कार्य हमें अस्त-व्यस्त कर देता है। अब्दुल रहमान की नायिका ही इससे कहाँ बच पाती
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तह मणहर चल्लंतिय चंचलरमण भरि;
छुडवि खिसिय रसणावलि किंकिणरव पसरि ॥ 26 ॥
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और खुली करधनी को जब तक मजबूत गाँठ से बाँधे तब तक - तुडिय ताव थूलावलि णवसरहारलय ॥ 27 ॥
और इस स्थल पर मुक्ताओंवाली हार - लता को टूटना ही था, सोने में कितना दम, क्योंकि आशा उन्मत्त हुए उसके पुष्ट उरोजों से उस हार को तो चोट लगनी ही थी, और इस चोट से उन्हें छिन्न-भिन्न होना ही था । और जब वह इन सबको येन-केन-प्रकारेण इकट्ठा करती है तो उसके अव्यवस्थित चाल का प्रभाव उसके नूपुरों पर पड़ता है, उनकी गति भी वही होती है। यहाँ तक तो ठीक था, किसी तरह वह उठती पड़ती- रुकती - गिरती आगे बढ़ती है पर प्रियतम को संदेश भेजने की अभिलाषा से हृदय में उठ रहे उच्छ्वास और गति की वक्रता, तीव्रता उसके सिर पर . से वस्त्र हटा देती है, भारतीय नारी सिर खोलकर कैसे आगे बढ़े, अतः वस्त्र ठीक कर पथिक के पथ का अनुसरण करती है तब तक -
फुडवि णित्त कुप्पास विलग्गिय दर सिहण ॥28॥
रेशमी चोली ही फट गयी और स्तन दिखने लगे। पर यहाँ भी वह कहाँ रुकनेवाली थी, इसलिए उसने अपने हाथों से उसे ढक कर (जैसे- इंदीवरों ने अपने स्वर्ण कलशों का ढाँपा हो) पथिक के पास पहुँच कर करुण शब्द कहती है और पथिक कौतूहल में पड़कर न आगे बढ़ता है न पीछे लौटता है अपितु अर्द्धचक्राकार स्थिति में आगे बढ़ने के उठे हुए पैरों के साथ वह नायिका की ओर उन्मुख हो उठता है
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नेणिअत्तउ ता सुकमधुवि णहु चलिउ ॥ 30 ॥
पथिक़ की इसी स्वाभाविक, उत्कंठापूर्ण सूक्ष्म स्थिति का चित्र केवल अब्दुल रहमान ही प्रस्तुत कर सकते थे। क्योंकि नायिका का अतुलनीय सौंदर्य, उसकी तात्कालिक स्थिति आदि सब कुछ पथिक को अचंभित स्तब्ध कर देने के लिए पर्याप्त थी। ऐसी स्थिति में पथिक का ठगा-सा, आकाश में टंगा-सा रह जाना अत्यंत स्वाभाविक प्रतीत होता है। संदेशरासक के ये कुछ एक उदाहरण हैं, जिनसे रचनाकार, रचनाधर्मिता, उसकी परंपरा, उसकी कल्पना- शक्ति, उसके प्रबंध - कौशल आदि का आसानी से पता लग जाता है। पारंपरिक चयन के विपरीत वह अपने नायक और नायिका का चयन सामान्य-जन की कथा-व्यथा से कर अपनी रचना का आधार बनाता है, और इस रचना में वह अपनी समूची रचनाशक्ति झोंककर अमर हो जाता है। चाहे शब्दों का चयन हो अथवा वाक्य का संयोजन या भावों की भरमार या सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्र की प्रस्तुति का मामला, सभी जगह वह बाजी मार ले जाता है। और मैं अंत में यही कहूँगा कि वह न तो रामायण, महाभारत की काव्य-परंपरा छोड़ पाता है और न ही वह युगीन चेतना को दरकिनार कर पाता । वह युगीन चेतना से संयुक्त एक अमर-बेलि का फैलाव हमारे बीच