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अपभ्रंश-भारती-3-4
हंसावलि-पक्ख-समुल्हसन्ति
हेसन्त - तुरङ्गम - वाहणेण । परियरिउ रामु णिय-साहणेण ॥१॥ णं दिस-गउ लील' पयई देन्तु । तं देसु पराइउ पारियत्तु ॥२॥ अण्णु वि थोवन्तरु जाइ जाम । गम्भीर महाणइ दिट्ठ ताम ॥३॥ परिहच्छ - मच्छ - पुच्छुच्छलन्ति । फेणावलि-तोय-तुसार देन्ति ॥ ४॥ कारण्ड - डिम्भ - डुम्भिय - सरोह । वर-कमल-करम्विय-जलपओह ॥५॥ हंसावलि - पक्ख - समुल्हसन्ति । कल्लोल-वोल-आवत्त दिन्ति ॥ ६ ॥ सोहइ वहु-वणगय - जूह - सहिय । डिण्डीर-पिण्ड दरिसन्ति अहिय ॥७॥ उच्छलइ थलइ पडिखलइ धाइँ । मल्हन्ति महागय-लीलणाइँ ॥८॥
घत्ता - ओहर-मयर-रउद्द सा सरि णयण-कडक्खिय । दुत्तर-दुप्पइसार णं दुग्गइ दुप्पेक्खिय ॥९॥
- पउमचरिउ 23.13 - जिसका अश्ववाहन हिनहिना रहा है, ऐसे अपने सैन्य से घिरे हुए राम मानो दिग्गज की तरह लीलापूर्वक पैर रखते हुए उस पारियात्र देश पहुँचे। और भी जैसे वह थोड़ी दूर जाते हैं कि वैसे ही उन्हें गम्भीर महानदी दिखाई दी, वेगशील मत्स्यों की पूँछों से उछलती हुई, फेनावलि के जलकणों को देती हुई, हंस-शिशुओं के द्वारा काटे गये कमलों से युक्त, वरकमलों से व्याप्त जलसमूहवाली हंसावली के पंखों से समुल्लसित, लहरसमूह के आवर्ती को देती हुई, वनगजों के समूह से सहित तथा प्रचुर फेन-समूह को दिखाती हुई वह शोभित होती है, उछलती है, मुड़ती है, प्रतिस्खलित होती है, दौड़ती है और महागज की लीला से प्रसन्नतापूर्वक चलती है। उलटे हुए मगरों से भयंकर नेत्रों से कटाक्ष करती हुई ऐसी दिखाई दी मानो अत्यन्त कठिन प्रवेशवाली दुदर्शनीय दुर्गति हो ॥१-९॥
- अनु. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन