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अपभ्रंश-भारती-3-4
जैन मर्मी कवियों के इस भाव ने उस काल में शैव, शाक्त, वैष्णव आदि विविध धार्मिक सम्प्रदायों में बढ़ते विद्वेष को भी काफी दूर तक शमन किया। सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का सामंजस्य उपस्थित कर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। वस्तुतः ये सर्व-धर्म सम-भाव के पुरोधा हैं। कवि जोइन्दु का यह कथन उस काल के साथ आज के युग के लिए कितना सार्थक प्रासंगिकता लिये हुए है, कहने की कोई आवश्यकता नहीं - उन्होंने कहा कि - सब देव एक हैं, उनमें कोई भेद नहीं है, वे इसी शरीर में बसते हैं -
सो सिउ संकरु विण्हु सो, सो रुद्द वि सो बुद्ध। सो जिणु ईसरु बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध॥ एव हि लक्खण-लक्खियउ, जो परु णिक्कलु देउ।
देहहँ मन्झहिँ सो वसइ, तासु ण विन्जइ भेउ। इस प्रकार आज की अनिवार्य आवश्यकता है कि हम सभी प्रकार के भेद-भाव भुलाकर जीयें और दूसरों को जीने देने में सहायक बनें। जोइन्दु की यह सद्भावना ही विश्वमैत्री की पहली सीढ़ी है। इसी का मूलरूप अहिंसा है जो जैनधर्म साधना और साहित्य का प्राणतत्व है जो श्री महावीर का अमर प्राणत्व संदेश है। जैसे अणु से सूक्ष्मतर और आकाश से विस्तृत कुछ नहीं है उसी प्रकार अहिंसा से सूक्ष्म और विस्तृत कोई दर्शन नहीं है। करुणा और मैत्री-भाव से बढ़कर कोई शुभचिंतक नहीं है। क्षमा, दया, सर्वधर्म सद्भाव आज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक दायित्व है, सहअस्तित्व का आधार है। जोइन्दु आदि जैन मर्मी साधकों और कवियों की इस विचार-भाव ज्योति के सिवा आज के जीवन की रक्षा के लिए दूसरा चारा नहीं है। 1. कामायनी, जयशंकर 'प्रसाद', निर्वेद सर्ग, पृ. 216। 2. कामायनी, जयशंकर 'प्रसाद', इड़ा सर्ग, पृ. 157। 3. कामायनी, जयशंकर प्रसाद', इड़ा सर्ग, पृ. 159। 4. विश्व-मानवता की ओर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अनुवादक - इलाचन्द्र जोशी, पृ. 92। 5. हिन्दी साहित्य, उद्भव और विकास, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 15, 16। 6. कामायनी, जयशंकर 'प्रसाद', दर्शन, पृ. 244। 7. परमात्मप्रकाश, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, इन्ट्रोडक्शन, पृ. 75। 8. हिन्दी साहित्य, उद्भव और विकास, डॉ. ह. प्र. द्विवेदी, पृ. 22। 9. हिन्दी काव्यधारा, पं. राहुल सांकृत्यायन, पृ. 2401 10. परमात्मप्रकाश व योगसार चयनिका, डॉ. कमलचन्द सोगाणी, प्रस्तावना, पृ. 8। 11. परमात्मप्रकाश व योगसार चयनिका, डॉ. कमलचंद सोगाणी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर,
18981 12. मध्यकालीन धर्म-साधना, डॉ. ह. प्र. द्विवेदी, पृ. 10। 13. मध्यकालीन धर्म-साधना, डॉ. ह. प्र. द्विवेदी, पृ. 121 14. परमात्मप्रकाश, 1-123।