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अपभ्रंश-भारती-3-4
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हो जाता है क्योंकि जब जीव और परमात्मा में कोई भेद ही नहीं रहा तो कौन किसकी पूजा करे -
मणु मिलियउँ परमेसरहँ, परमेसरउ वि मणस्स।
बीहि वि समरस हूवाह, पुन्ज चढ़ावउँ कस्स। इस सामरस्य भाव में समस्त इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थ उदात्तीकृत होकर सर्वात्म हित के लिए समर्पित होकर उसी प्रकार तिरोहित हो जाते हैं जैसे सरिताएँ अपने को समर्पित करते हुए तिरोहित होकर सागर बन जाती हैं। इसमें मन, बुद्धि, संवित (चेतना) ऊहापोह, तर्क-वितर्क सब शान्त हो जाते हैं। आत्मा आकाश की भाँति, शून्य की तरह अपने आप में ही रम जाता है। इसमें परसंवेदन के आधार पर चलकर भटकने की स्थिति नहीं होती। इसमें भेद की स्थिति मिटकर सब आत्म (आत्मीय) अपने हैं, के महाभाव में अपने ही अपने को जानने का - स्वसंवेदन रस प्राप्त होता है। मुनि जोइन्दु ने इसे बड़ी मार्मिक भाषा में कहा है कि - बलिहारी है उस योगी की जो 'शून्य पद' का ध्यान करता है, जो 'पर' - परम पुरुष परमात्मा - के साथ समरसी भाव का अनुभव करता है, जो पाप और पुण्य के अतीत हो जाता है -
सुण्णउं पउँ झायंता, बलि बलि जोइयडाहैं।
समरसि-भाउ परेण सहु पुण्णु वि पाउ ण जाहँ । भला ऐसे समरसी भाववाले महायोगी पर कौन बार-बार बलिहारी नहीं जायेगा, जो उजाड़ को बसाता है और बस्ती को शून्य करता है। सम्भवतः परसंवेदनजीवी को यह कथन उलटबाँसी लगे। पर जीवन की यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि स्वार्थ, लोभ, काम, क्रोध आदि विविध विकारों से रची गयी यह शरीररूपी मायानगरी बालू की भीति को वह बस्ती मानता है। सांसारिक दृष्टि से तथाकथित इस बस्ती को (परमात्मप्रकाशी) योगी इसे छोड़कर, भुलाकर, उजाड़कर चित्त को उस शून्य निरंजन स्थान पर पहुँचता है जहाँ समस्त मायामोह आदि इन्द्रियार्थ तिरोहित हो जाते हैं तो योगी वस्तुतः उजाड़ को बसाता है - समरसभाव पूर्ण होता है -
उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु। बलि किज्जउँ तसु जोइयहिं जासु ण पाउ ण पुण्णु॥ सुण्णउँ पउँ झायंतहँ, बलि बलि जोइय डाहँ।
समरसि-भाउ परेण सहुँ, पुण्णु वि पाउ ण जाहँ।। इस संदर्भ में महाकवि जयशंकर 'प्रसाद' के इस प्रसिद्ध गीत का मर्म कितना सार्थक है जिसे प्रायः गलत समझा गया है। प्रसादजी' अपने गीतरूपी नाविक से इस छल-छद्म-भरी बस्ती से उस वास्तविक बस्ती में ले जाना चाहते हैं जहाँ निश्छल प्रेम है, करुणा है, शांति है, सुख-दुःख समभाव का सत्य है और विभुता (प्रकृति) विभु (परमात्म-ब्रह्म) के रूप में एक हो जाते हैं, समरस हो जाते हैं। वस्तुतः गीत प्रगतिशील भावापन्न है -
विमुता विभु से पड़े दिखाई, दुख-सुख वाली सत्य बनी रे । ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे धीरे ॥