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अपभ्रंश-भारती-3-4
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आज का सबसे बड़ा धर्म है 'मानवता।''मानव की एकता' में विश्वास, 'समष्टि मानव' के हित की चिन्ता, समस्त प्रयोजनों से मनुष्य को बड़ा मानने की भावना प्रायः सभी विचारकों, चिन्तकों के चिन्तन का विषय है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि "समस्त ऊपरी हलचलों के विक्षुब्ध तरंग-संघात के नीचे निस्तब्ध भाव से विराजमान है मनुष्य की एकता। मनुष्य एक है, भेद-विभेद ऊपरी बातें हैं" पर इस लक्ष्य की प्राप्ति साधारण बात नहीं है। इसके लिए त्याग, तपस्या और चित्त की शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। प्रकारान्तर से वे वही बातें कहते हैं जिसे जोइन्दु ने कहा है। आचार्य द्विवेदी के अनुसार, 'मनुष्य की इस महान एकता को पाने के लिए समस्त संकीर्ण स्वार्थों का बलिदान, क्षणिक आवेगों का दमन, उत्ताल संवेगों का निरोध, अशुचि वासनाओं का संयमन, गलत तर्कपद्धति का निरास और आत्मधर्म का विवेक आवश्यक साधन हैं। इन्हीं से वह परम आनन्द चित्त में उच्छल हो उठता है जिसका प्रकाश साहित्य है।" ऐसी ही भावनाओं का साहित्य जोइन्दु का परमात्मप्रकाश है जिसकी प्रासंगिकता आज के संदर्भ में और अधिक उपयोगी है। __ थोड़ी गहराई से देखें तो 'मनुष्य की एकता' या 'समष्टि मानव की भावना' जैनधर्म और साहित्य में कितनी गहराई के साथ पैठी हुई है। जैन साधक बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा आदि अगणित आत्माओं में विश्वास करते हैं ये आत्मा क्रोध, मोह, मद, माया, मत्सर, लोभ, अहंकार आदि इन्द्रियादिक विषयों से मुक्त होने के बाद परमात्मा हो जाते हैं। इन परमात्माओं के गुण एक समान हैं इसलिए वे 'एक' कहे जा सकते हैं। यह एकत्वानुभूति' या 'समत्वप्रज्ञा' आसक्ति की कषाय छोड़े शुद्ध ज्ञान से प्राप्त होती है और इसका प्रमुख साधन चित्त शुद्धि है। वस्तुतः यह वह मूल्य है जिसके बिना कोई बड़ी उपलब्धि हो ही नहीं सकती। 'मानवता' या 'मानव का एकत्व' और उसका कल्याण जैसे बड़े काम की संकल्पना के लिए चित्त की शुद्धि या बड़े हृदय का होना अत्यावश्यक है। यदि संकल्प महान है तो प्रयत्न भी महान होना ही चाहिये। यह एक युग की बात नहीं, युग-युग की बात है। अतः जोइन्दु का यह कथन आज भी सर्वथा प्रासंगिक है कि - "चित्त शुद्धि के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। चाहे जीव जितने तीर्थों में नहाता फिरे और जितनी तपस्या करता फिरे, मोक्ष तभी होगा जब चित्त शुद्ध हो" - हे जीव, जहाँ खुशी हो जाओ और जो मर्जी हो करो किन्तु जब तक चित्त शुद्ध नहीं होगा तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा।
जहिं भावइ तहिँ जाहि जिय, जं भावइ करि तं जि।
केम्वइ मोक्खु ण अस्थि पर, चित्तहँ सुद्धि णं जं जि" इस प्रकार जोइन्दु के अनुसार मानव शरीर ही साधना का सर्वोत्तम स्थल है। ब्रह्मांड की सब चीजें इसी पिंड में वर्तमान हैं। देवता कहीं बाहर नहीं, शिव के रूप में इसी पिंड में ही वर्तमान है। उससे अभेद सम्बन्ध जोड़कर 'एकत्व' की पुनीत भावना की धारणा अनुस्यूत हो सकती है। पर मन से भेदबुद्धि समाप्त करने के लिए चित्तशुद्धि आवश्यक है। जोइन्दु कहते हैं कि - 'हे योगी! अपने निर्मल मन में ही शांत शिव का दर्शन होता है । घनरहित निर्मल आकाश में ही सूर्य चमकता है। और यह अन्धकाररूपी बादल ज्ञानरूपी सूर्य से ही छंटता है। जोइन्दु के अनुसार - "दान करने से भोग मिल सकता है, तप करने से इन्द्रासन भी मिल