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अपभ्रंश - भारती - 3-4
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करवाने लगें। प्रपंच बुद्धि, बाह्याडंबर, शुष्क ज्ञान, तीर्थाटन, पंडे-पुरोहितों का मकड़जाल इतना फैल जाय कि लोग अपने 'घर की चक्की की पूजा' यानि स्वावलम्बन की भावना ही भूल जायँ । पत्थर की मूर्ति की पूजा करें और पत्थर दिल होकर मनुष्य को ही पत्थर मानें, उससे घृणा करें। इससे बढ़कर और विडम्बना क्या हो सकती है। जैन कवि जोइन्दुं ने अपनी कविता के माध्यम से इस जकड़बन्दी का जोरदार विरोध किया । चित्तशुद्धि पर जोर दिया, इस शरीर को ही सभी साधनाओं का आधार माना, समचित्ति यानि समान चेतना के आधार पर मनुष्य को 'एक' माना । आत्मोपलब्धि और मानवात्मा की मुक्ति अपना लक्ष्य बनाया। वे कहते हैं कि "देवता न तो देवालय में है, न शिला में, न चन्दनादि के लेप में, न चित्र में - वह अक्षय निरंजन ज्ञानमय शिव तो शुभ एवं समचित्त में निवास करता है"
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देउ ण देउले णवि सिलए, णवि लिप्पड़ णवि चित्ति । अखय णिरञ्जणु णाणमउ, सिउ संठिउ समचित्ति ॥ 14
समचित्ति, परमार्थ (आत्मा-समता) का पर्यायवाची है। ऐसे व्यक्ति के अन्तर और बाह्य दोनों शुद्ध होते हैं। उसकी चेतना उर्ध्वगामी होती है। जागृत होती है। उसमें शुद्ध-मंगल भावनाएं निवास करती हैं। वह अहिंसा, मैत्री और क्षमा में विश्वास करता है। वह विमलात्मा ही परमात्मा है। इसी की चरमानुभूति उसका काम्य है। वह सबमें इसी परमात्मप्रकाश को देखना चाहता है। वह मानव की एकता- मानवात्मा में विश्वास करता है। इसी में सबका उद्धार और कल्याण देखता है। इसीलिए भेद-विभेद, तीर्थ, गुरु, शास्त्र-पुराण जो परसंवेद्यमार्गी बनाकर लोगों को भटकाते हैं, आदमी को आदमी से दूर करते हैं, उसे त्याग देने की बात करते हैं । जोइन्दु कहते हैं- "मैं गोरा हूँ, मैं श्यामल हूँ, मैं विभिन्न वर्ण का हूँ, मैं तन्वांग हूँ, मैं स्थूल हूँ, मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, मैं (धनवान ) वैश्य हूँ, मैं (श्रेष्ठ) क्षत्रिय हूँ, मैं शुद्र हूँ, मैं पुरुष, नपुंसक, स्त्री, ऐसा वर्ण, जाति, लिंग भेद मूर्ख विशेष ही मानता है"
हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ॥'s हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ, हउँ खत्तिउ हउँ सेसु । पुरिसु णउंसउ इत्थि हउँ, मण्णइ मूदु विसेसु ॥"
इसी प्रकार वे कहते हैं कि विमलात्मा को छोड़कर मूढ़ ही दूसरे की सेवा की मृगमरीचिका में भटकते हैं - "विमलात्मा को छोड़कर, हे जीव ! अन्य तीर्थ में मत जाओ, अन्य गुरु की सेवा मत करो, अन्य देवता की चिंता मत करो। निजमन (स्वसंवेद्य) निर्मल आत्मा शास्त्र-पुराण - तप-चरण (कठोर) नियम में नहीं बसती, और न तो इनसे मोक्ष की प्राप्ति ही होती है"
अणु जतित्थुम जाहि जिय, अण्णु जि गुरुउ म सेवि । अणु जि देउ म चिंति तुहुँ, अप्पा विमलु मुवि ॥ अप्पा णिय-मय णिम्मलउ, णियमें वसइ ण जासु । सत्थ-पुराणई तव चरणु, मुक्खु वि करहिं कि तासु ॥7