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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 पाँति में बँटकर, धर्म-सम्प्रदाय की दीवार खड़ीकर, काले-गोरे, ऊँच-नीच का भेद-भाव बढ़ाकर। वह आज एक नहीं है, अनेक है - हिन्दू है, मुसलमान है, सिख है, ईसाई है, चीनी, जापानी. फ्रांसीसी. अंग्रेज. अमेरिकन, रूसी है। वह देश-विदेश. प्रदेश में बँटा है। जैसे लगता है कि 'भूमा का आनन्द', 'वसुधैव कुटुम्बकम् का सुख' उसके लिए छलावा है। इसीलिए मन्दिर-मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारे का झगड़ा है। 'प्रसादजी' के शब्दों में सर्वत्र 'तुमुल कोलाहल कलह' है। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार, मद, मत्सर और पद के चलते वह डरता है, डराता है, फिर-फिर उसकी उपासना करता हुआ इतिहास के पृष्ठों को रक्तरंजित कर विलीन हो जाता है - 'भयभीत सभी को भय देता, भय की उपासना में विलीन" और उसको 'जीवननिशीथ के अन्धकार" के अलावा कुछ नहीं मिलता। आज का आदमी इन्हीं बाह्य एवं आन्तरिक संकटों को लेकर जी रहा है। उसके जीवन में अशान्ति, अन्तर्कलह, अपनर्मिलता (एबनामिलिटी), दुश्चिन्ता, असामान्य तनावग्रस्तता, निराधार भयाक्रान्तता, मानसिक रुग्णता का विष घुल-घुल कर उसे मार रहा है। पर ऐसी स्थिति है क्यों ? वस्तुतः मानव की इस स्थिति एवं नियति का मूल कारण है - सामाजिक मूल्यात्मक चेतना का अभाव, समष्टि-मानव में विश्वास की अवधारणा की कमी, जीवन को समवाय एवं समग्ररूप से न देखने की हठधर्मिता, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र-रूपी रत्नत्रय की कमी, स्वसंवेद्यमार्गी न होकर परसंवेदमार्गी बनकर रूढ़ धार्मिक शास्त्रों, पूजा-पाठ संबन्धी जड़ताओं, विविध प्रकार की अंध आस्थाओं तथा जाति-पाँति, वर्ण-भेद सम्बन्धी अन्तर्विरोधी व्यवस्थाओं में विश्वास और जीवन को स्वस्थ बनानेवाले अमृततत्व - सामंजस्य-समन्वय-समरसता को नितान्त अनबूझी एवं अनदेखी कर देनेवाली प्रवृत्ति। इसी के कारण ही समाज की यह दारुण एवं दयनीय स्थिति हो गयी है। निराशा की ऐसी स्थिति में अपभ्रंश के मर्मी जैन कवि आशा का संचार करते हैं । वस्तुतः मनुष्य के भीतर ऐसी स्वस्थकर प्रवृत्तियाँ और चेतना के प्रकाश स्तर हैं जिनसे हमें आशा बँधती है, निराशा का कुहासा फट जाता है, अन्धकार को भेदती प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित हो जाती हैं । रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में, "मनुष्य के अन्तर में सामंजस्य की प्रवृत्ति पायी जाती है। बाहर उपकरण और आडम्बर का अन्त नहीं पाया जाता, किन्तु भीतर संतोष रहता है ; बाहर दुःख-दर्द की सीमा नहीं रहती, पर अन्तर में धैर्य पाया जाता है; बाहर विरोध पाया जाता है, पर अन्तर में क्षमा रहती है; बाहर लौकिक सम्बन्धों का पार नहीं पाया जाता, पर भीतर विराजता है प्रेम; बाहर संसार के विस्तार का अन्त नहीं है, पर अन्तर में आत्मा में ही आत्मा को पूर्णता प्राप्त हो जाती है। एक ओर के अशेष द्वारा ही दूसरी ओर की अखंडता की उपलब्धि पूरी होती है। _____ पर इन अमृत्तत्वों को सही भाषा, सही रास्ते और बेहद ईमानदारी से खोजने का श्रेय अपभ्रंश के मर्मी जैन सन्त कवियों को ही लाता है। वैसे कहने के लिए बड़ी-बड़ी बातें पवित्र और लच्छेदार भाषा में कही जाती हैं पर वहाँ कथनी और करनी में फर्क होता है। लिखने, सोचने और बोलनेवाली भाषा में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। अपभ्रंश के इन मर्मी सन्त कवियों ने पहली बार जनता के लिए जनभाषा में जनता के साथ होकर कहा, लिखा। इसलिए उनकी अनुभूति में सच्चाई का दम है, ईमानदारी की ताकत है। इस ताकत का अन्दाजा इसी से लगाया
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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