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अपभ्रंश - भारती - 3-4
जनवरी - जुलाई - 1993
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अपभ्रंश के समरसी मर्मी कवि मुनि जोइन्दु : प्रासंगिकता की कसौटी पर
• डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय
आज का युग वैज्ञानिक युग कहा और कहलाया जा रहा है। दावा भी किया जा रहा है कि जैसी प्रगति आज हुई है, वैसी कभी नहीं हुई थी। मानव की सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध हो रहे हैं। सागर की गहराइयाँ और पर्वतों की ऊँचाइयाँ माप ली गई हैं। पृथ्वी का चप्पा-चप्पा खोज लिया गया है। दूसरे लोकों में भी मानव के पैर पड़ने लगे हैं। अब यह शिकायत नहीं रही कि साधनों के अभाव में एक छोर का मानव दूसरे छोर के मानव को नहीं जानता, पर वास्तविकता यह है कि मानव-मानव की दूरी जितनी आज बढ़ी है, उतनी कभी नहीं थी ।
दूसरी ओर ज्ञान का क्षेत्र बड़ा व्यापक हो गया है। मनुष्य की जिगीषा शक्ति अपरम्पार हो गई है। जिजीविषा उसे न जाने कहाँ से कहाँ ले गई है। वह छककर सबका उपभोग कर लेना चाहता है - जड़ और चेतन, प्रकृति और पुरुष दोनों का। आज सर्वत्र भोगवादी प्रवृत्ति का ही बोलबाला है। इसी के चलते आज मानव-जीवन में अनेकानेक जटिलताओं और विषमताओं ने घर कर लिया है, डेरा डाल दिया है। सुख-दुःख का वैषम्य, अनन्त इच्छाएँ और उनकी पूर्ति की वेदना का वैषम्य, अन्तहीन आकांक्षाओं और उनकी तृप्ति की अतिशय दुष्प्राप्यता का वैषम्य, अधिकारी और अधिकृत, शासक और शासित की असमानता का वैषम्य, आदि कितने प्रकार की असमानताओं और विषमताओं ने आदमी को 'आदमी की परिभाषा' भी भुलवा दिया है। इन्सानियत को इन्सान से हटाकर उसे हैवान बना दिया है। मनुष्य, मनुष्य से दूर हुआ है - जाति