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अपभ्रंश-भारती-3-4
मनुष्य का शरीर दुःख की पोटली है उसे जितना धोओ उतना ही अशुद्ध होता है। सुगन्धित पदार्थ का लेप मैल में बदल जाता है -
माणुससरीरु दुहपोट्टलउ, धोयउ धोयउ अइविट्टलउ। वासिउ वासिउ णउ सुरहि मलु, पोसिउ पोसिउ णउ धरइ बलु॥
(2.11, 1-2) कवि वातावरण के निर्माण में सिद्धहस्त है। क्रिया-बिम्बों के द्वारा वह सम्पूर्ण दृश्य को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देता है।
वर्णन के बीच में आनेवाले मुहावरे तथा लोकोक्तियों से पुष्पदंत की काव्य-भाषा जीवन्त हो जाती है। उसमें व्यापक व्यंजना के गुण स्वतः आ जाते हैं। उदाहरणार्थ - रण्णे रुण्णं वियलई सुण्णं (अरण्य रोदन की तरह शून्य एवं निष्फल हो जाना)। वैसे पुष्पदंत की रुचि मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग की नहीं है। सम्पूर्ण काव्य में बहुत कम मुहावरे उपलब्ध हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जसहरचरिउ की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है। कवि ने विविध भावों, अनुभावों, स्थितियों, चरित्रों, दृश्यों के वर्णन में अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि माध्यमों से भाषा को सशक्त एवं समृद्ध बनाया है।
रीडर, हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद