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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 अभंग और अलिंग है। यह कुमारी शुभों की योनि है या तपों की खानि है, दुःखों की हानि है या कवियों की वाणी है । सन्देह का इतना प्रभावशाली विधान पुष्पदंत जैसे सशक्त कवि के द्वारा ही संभव है। उसकी चेतना स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम स्तरों पर व्याप्त हो जाती है। एक बालिका को कवि की वाणी के रूप में कल्पित करना उसके सूक्ष्म अनुभवन का ही परिचायक है। प्रकृति, नगर-वर्णन तथा ग्राम्य-चित्रण में कवि अपनी मौलिक उद्भावना से ऐसे उपमानों का विधान करता है कि पाठक एकदम से नये धरातल पर पहुँचकर नये अनुभव से सम्पृक्त हो उठता है। रात्रि का वर्णन करते हुए कवि कहता है - सूर्य उदित हुआ और फिर मानो अधोगति को प्राप्त हुआ, जैसे - कहीं बोया हुआ बीज लाल अंकुर के रूप में प्रकट हुआ है, उसके द्वारा वह संध्यारूपी लता प्रकट होकर समस्त जगतरूपी मंडप पर छा गयी। वह तारावली-रूपी कुसुमों से युक्त हो गयी तथा पूर्ण चन्द्ररूपी फल के भार से झुक गयी। रात्रि के लिए लता. पुष्प और फल का बिम्ब एकदम मौलिक है - रवि उग्गु अहोगइ णं गयउ, णं रत्तउ कंदउ णिक्खियउ। तहिं संझा वेल्लि वाणीसरिय, जगमंडवि सा णिरु वित्थरिय। तारावलिकुसुमहिं परियरिय, संपुण्णचंद चंदफल भरणविय। (2.2, 2-4) कवि ने प्रेम की सम्वेदना तथा काम भाव की अतिशयता का चित्रण सर्पदंश के बिम्ब द्वारा किया है। कामातुर व्यक्ति की काँपती, बल खाती एवं गतिशील देह उसके अन्तस्तल में जागृत काम भाव के प्रबल आवेग को ही व्यंजित करती है - सव्वंगु मझु रोमंचियउ, सव्वंगु सेयसंसिंचियउ। सव्वंगु बप्प वेवइ वलइ, णं सविससप्पदट्ठउ चलइ। (2.5, 3-4) कवि केवल मधुर एवं मोहक रूपों के चित्रण में ही नहीं रमता, विरूप के चित्रण में भी वह सिद्धहस्त है। एक ओर यदि वह दैहिक संरचना के सन्तुलित एवं ओजस्वी रूप को प्रस्तुत करता है तो दूसरी ओर देह की विकृति और मानव की क्रूरता का भी जीवन्त चित्र खींचता है। एक कुबड़े पुरुष का चित्रण करते हुए कवि आन्तरिक घृणा को भी उजागर कर देता है क्योंकि वह विवाहिता स्त्री, जो रानी के गौरव से मंडित है, का अवैध प्रेमी है। कवि कहता है - , अइ अड्डवियड्डहड्ड विसमु, णिरु फुट्टपाय कयणयविरमु। (2.6,12) परुष वर्गों की योजना से उस पुरुष की परुषता सहज ही व्यंजित हो जाती है। विरक्त भाव को व्यंजित करने के लिए पुष्पदंत नारी को विषशक्ति के समान मारणशील, अग्नि की घमावली के समान घर को मैला करनेवाली कहते हैं। ... वीप्सा अलंकार के माध्यम से कवि दैहिक नश्वरता को अंकित करता है। उसकी दृष्टि में
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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