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अपभ्रंश-भारती-3-4
उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने वृद्धावस्था का जो स्वाभाविक चित्र अंकित किया है वह अद्वितीय है। वृद्धावस्था का बिम्ब निर्मित करते समय वह विरक्ति और अनुरक्ति दोनों पक्षों के उपमानों का चयन करके विचित्र प्रभाव उत्पन्न करता है। वृद्ध की शारीरिक हानि, ऐन्द्रिक क्षीणता तथा आत्मीयजनों द्वारा उसकी उपेक्षा की व्यंजना बड़ी मार्मिक है।
प्रकृति, काव्य-शास्त्र, राजनीति आदि अनेक क्षेत्रों से बिम्ब का चयन करके कवि अपनी कल्पना शक्ति के साथ ही जीवन के विस्तृत अनुभवों का भी परिचय देता है। किसी आश्चर्यजनक वस्तु या घटना या वक्तव्य से व्यक्ति स्तंभित हो जाता है। राजा के पास अभयरुचि का आगमन तथा उसके द्वारा किये गये प्रबोधन से इसी तरह का दृश्य उपस्थित होता है। चामुण्डा देवी के मंदिर में लोग न चलते थे, न डोलते थे, जैसे मानो लेप पर बनाये गये हों अथवा जैसे मानो भित्तियों पर चित्रकार द्वारा लिखे गये हों - ण चलइ ण वलइ णं लेप्पि विहिउ, णं भित्तिहिँ चित्तयरेण लिहिउ।
(1.20, 6) देह-छवि का चित्रण करते समय कवि यद्यपि पारंपरित उपमानों का ही प्रयोग करता है किन्तु उसकी दृष्टि शरीर के अंगों में झलकनेवाले भाव-सौन्दर्य की ओर भी आकर्षित हो जाती है। छुल्लेक और छुल्लिका के अंगों के सौन्दर्य का अंकन करते हुए कवि कहता है कि उनकी भुजाएँ दयारूपी बल्ली की शाखाओं के सदृश हैं। यहाँ स्थूल के लिए सूक्ष्म भाव-बिम्ब की परिकल्पना की गयी है। ___ अद्भुत कुमार और कुमारी राजा के समक्ष प्रस्तुत हैं। वह निर्णय नहीं कर पाता कि ये कौन हैं ? मन दौड़ने लगता है वस्तुस्थिति की पहचान के लिए। एक-एक करके अनेक देवी-देवताओं की कल्पना उभरने लगती है। मन की गति के साथ छन्द भी गतिशील होता है - दो-दो शब्दों के चरणवाला छन्द अपनी लय और गति में प्रभावशाली बना रहे उसके लिए कवि प्राकृत की ध्वन्यात्मक प्रवृत्ति को स्वीकार करने में भी नहीं हिचकता है। अन्त्य अक्षर की दीर्घता छन्द को गीतात्मक टेक से युक्त कर देती है -
अणिंदो खगिंदो दिणिंदो फणिंदो। सुरिंदो उविंदो महारुंदचंदो। सिसूरूवधारी मुरारी पुरारी। अणंगो असंगो अभंगो अलिंगो।
सुहाणं व जोणी तवाणं व खोणी। दुहाणं व हाणी कवीणं व वाणी।
(1.18, 1-10) राजा विचार करता है कि यह बालक कोई खगेन्द्र है, द्विजेन्द्र, फणीन्द्र या सुरेन्द्र या उपेन्द्र या पूर्ण चन्द्र है। शिशुरूप में मुरारी है या त्रिपुरारी है या स्वयं कामदेव है। तो भी यह निसंग,