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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 प्रचुर प्रयोग देखा जा सकता है। माणुस, सरीरु, बलु, परियणु आदि शब्दों में अपभ्रंश की उकार प्रवृत्ति द्रष्टव्य है किन्तु संतोसो, लच्छि विलासो, रहिओ, महिओ आदि में प्राकृत प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इसी तरह कर्म 'म्', करण 'एण', सप्तमी 'म्मि' के पर्याप्त प्रयोग निर्दिष्ट किये जा सकते हैं। अपभ्रंश में यद्यपि प्रमुख रूप से शब्दों को दो लिंगों में विभाजित किया गया है किन्तु जसहरचरिउ में नपुंसकलिंगीय-रूपों का प्रयोग कतिपय स्थलों पर द्रष्टव्य है। कवि का ध्यान लयात्मकता तथा शब्दों की ध्वन्यात्मक गतिशीलता पर है। वह सम्पूर्ण कड़वक में अनुनासिकता से समाप्त होनेवाले शब्दों की लड़ी पिरो देता है। जैसे - मई लिहियई गहियई अक्खराई, गेयई सरिगमपधणीसराई। फल-फुल्ल-पत्त-छिन्तराई, सिललेपकट्ठकम्मतराई। वायरणई णट्ठई णवरसाई, छंदालंकारई जोइसाईं। (1.24.3-5) शब्दों की पुनरावृत्ति का अद्भुत सौन्दर्य प्रस्तुत कृति में परिलक्षित होता है। कवि कहीं 'सर्वनाम, कहीं क्रिया-विशेषण की पुनरावृत्ति करता है। इसे पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस पद्धति से वह स्थान विशेष का समग्र चित्र अंकित करना चाहता है। उसके चित्रण में वर्णन-कौशल के साथ ही कथा की गतिशीलता मिलती है। अवन्ति देश का वर्णन करते हुए कवि स्थान-सूचक सार्वनामिक विशेषण का ही अनेक बार प्रयोग करता है - जहिं चुमुचुमंति केयारकीर, वरकलमसालिसुरहियसमीर। जहिं गोउलाई पउ विक्किरंति, पंडच्छदंडखंडड चरंति। (1.21.1-2) इसी तरह उज्जयिनी का चित्रण करते हुए जहिं' की तीन बार आवृत्ति की गयी है। केन्द्रीय वर्ण्य-विषय का बार-बार कथन करके उससे सम्बद्ध अनुभवों को समाविष्ट करने का यत्न कई छन्दों में दृष्टिगत होता है। यह पुनरावृत्ति कई स्थलों पर आलंकारिक भी है। कवि को उपमा पर उपमा देने की झक-सी लग जाती है। वास्तव में उसकी कल्पनाशक्ति बड़ी प्रबल है, क्षणमात्र में उसे गुण, धर्म एवं रूप-साम्य को धोतित करनेवाले अनेक उपमान सूझ जाते हैं। उसकी मौलिक उद्भावना तथा सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता का परिचय ऐसे स्थलों पर विशेषरूप से मिलता है। रूपक और उत्प्रेक्षा का एक साथ प्रयोग अधोलिखित छन्द में द्रष्टव्य है - तारुण्णि रण्णि दड्ढें खलेण उग्गिं लग्गिं कालाणलेण। सियकेसभारू णं छारु घुलइ, थेरहो बलसत्ति व लाल गलइ। थेर हो पाविं णं पुण्णसिट्ठि, वयणाउ पयट्टइ रयणविट्ठि। जिह कामिणिगइ तिह मंद दिट्ठ, थेरहो लट्ठी वि ण होइ लट्ठि। हत्थहो होंती परिगलिविजाइ, किं अण्ण विलासिणि- पासि ठाई। थेरहो पयाई णहु चिक्कमंति, जिह कुकइहिं तिह विहडेवि जंति। थेरहो करपसरु ण दिडु केम कुत्थियपहु विणिहयगामु जेम। (1.28.1-6)
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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