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अपभ्रंश-भारती-2
आरोहणु करिवि कुमरें पयपेल्लिउ मयगलु । किंकरपरियरिउ णीसरिउ फुरियखग्गुज्जलु ॥ मंचारुढियए वज्जरिउ दिण्णसिंगारहो ।
जोवहि धरणिवइ पियधरिणि जंति घरु जारहो ॥ घत्ता (23 मात्रिक)
सन्धि 7 में प्रत्येक कडक्क के अन्त में आनेवाले पत्ता समान हैं । घत्ता 9 व 14 का अन्त दो गुरु तथा शेष का लघु से होता है । जैसे -
णिग्गयाई रोसेण मणिकचणकवयं गई। उहयबलई लग्गाई सरवर पिहियपयगई ॥1 पुरवरे सयल पइ कमसोहावित्थारे ।
गुणवइ मामहो धीय परिणिय णायकुमारे ॥ 5. ध्रुवक ध्रुवक (31 मात्रिक) सन्धि 4 व 8 में ध्रुवक समान होते हुए अन्त में गुरु रखता है। जैसे -
साहेप्पिणु वरकरि अवरु वि सो हरि पुरणरणियरपलोइउ ।
तणएण सतायहो कयमुहरायहो पय पणवेप्पिणु ढोइउ ॥3 धुवक (30 मात्रिक) सन्धि 1,2, 5 व १ का ध्रुवक समान है और अन्त में लघु प्रयोग हुआ है । जैसे -
परिणिवि सुद्ध सई कलहंसगई वियसियविडविणिहाणहो ।
गयउ सणेउरेण अतेउरेण सहुँ परवइ उज्जाणहो ॥4 धुवक (23 मात्रिक) सन्धि 7 में ध्रुवक का अन्त लघु से होता है । जैसे -
लच्छीमइ पिउगेहे थविवि सुरासुरवदहो ।
णायकुमारु सवीरु गउ उज्जित गिरि दहो ॥5 ध्रुवक (24 मात्रिक) . सन्धि 3 व 6 का ध्रुवक समान है जिसका अन्त लघु से होता है । जैसे -
सिद्ध णमह भणेवि अट्ठारह लिविउ भुअगउ ।
दक्खालइ सुयहो सिक्खइ मेहावि अणंगउ ॥ 6. दुवई
28 मात्रावाला दुवई सन्धि 3 व 4 में कडवक के प्रारम्भ में प्रयुक्त है । सभी समान होते हुए भी उनके चरणों के अन्त में विभेद पाया जाता है । सन्धि 3 में कडवक के प्रारम्भ में प्रयुक्त संख्या 2 व 4 के चरण का अन्त लघु-गुरु, 1, 5 व 8 का अन्त लघु-लघु और 3, 6, 7, 9, 11, 12, 14, 15, 16, 17 के चरण का अन्त गुरु-लघु-गुरु से होता है। जबकि