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अपभ्रंश-भारती-2
जुलाई, 1992
णायकुमार-चरिउ का छंद
• डॉ. रामबरन पाठक
भूषन विन न विराजई, कविता वनिता मित्त ।
- केशव संदर्भित विषय के अन्तर्गत उक्त पक्ति समीचीनता का द्योतक है । काव्यरूपी नारी का श्रृंगार बाह्य साज-सज्जा कलात्मकता है जो. उसके सौन्दर्य में वृद्धि करती है ।
कविता के प्रधान बाह्य श्रृंगार हैं - छंद, अलंकार, गुण-दोषादि । 'छन्दोऽलंकार मन्जूषां तो है ही साथ ही -
बिना व्याकरणेनान्धः, रुधिरकोषविर्जितः । ..
छन्दःशास्त्र विना पंगुः, मूकस्तक विवर्जितः ॥ छन्द के बिना कविता-रूपी नारी पंगु हो जाती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि काव्य में छन्द कितना महत्त्वपूर्ण है जिसको "छन्दयति आह्लादयति इति छन्दः" पक्ति भी परिभाषित करती है कि छन्द वही है जो आह्लादित करता है । 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' के अनुसार देवाधिदेव महादेव सभी विद्याओं के अधिपति हैं । इसीलिए वे ही छन्द-शास्त्र के प्रवर्तक भी । बाद में इस विद्या का ज्ञान इन्द्र, दुश्च्यवन, वृहस्पति, भाण्डव्य, सैतव, यास्क ऋषि एवं आचार्य पिंगल से होता हुआ परवर्ती सभी ग्रन्थकारों को प्राप्त हुआ है । छन्द-योजना एक श्रेष्ठ कला है । इसे आत्मानुभूति का संगीत कह सकते हैं ।