________________
अपभ्रंश-भारती-2
81
उन्होंने यद्यपि इनका पूर्ण विवेचन नहीं प्रस्तुत किया है किन्तु इतना अवश्य संकेतित किया है कि इनमें संगीत, वाद्य और अभिनय का प्रयोग होता है ।
वस्तुतः ये तालवृत्त हैं जो लोक-गीतों से गृहीत हैं । प्राकृत-अपभ्रंश छंद-परम्परा पर लोकगीतों का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा और कालान्तर में इन लोक-छंदों को शास्त्रीय मान्यता मिली होगी । शास्त्रीय संगीत में स्वरों के आरोह-अवरोह का महत्त्व होता है किन्तु लोकगीतों में स्वर की अपेक्षा ताल का महत्त्व अधिक होता है । ताल में बलाघात अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । तालगण में सभी वर्गों का उच्चारण हो, यह आवश्यक नहीं । कालमात्रा की पूर्ति के लिए वर्गों का स्वेच्छापूर्वक उच्चारण किया जा सकता है । लिखितरूप में जो वर्ण एकमात्रिक हैं, तालवृत में उनका उच्चारण दिमात्रिक, त्रिमात्रिक, प्लुत कुछ भी हो सकता है । शिक्षित वर्ग स्वर-संगीत को प्रधानता देता है और जनसामान्य तालवृत्त को ।
___ इस प्रकार स्वयम्भू ने अपभ्रंश छंदों का संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया है । वृत्तजाति समुच्चय, कविदर्पण, गाथा लक्षण, छन्दकोश, छंद शेखर, जानाश्रयी आदि ग्रंथों में भी छदों का विवेचन हुआ है किन्तु किसी भी ग्रंथ में विषय का सांगोपांग विवेचन नहीं है । अवश्य आचार्य हेमचन्द्रकृत 'छन्दोऽनुशासन' छंदशास्त्र का प्रामाणिक एवं विस्तृत विवेचन करनेवाला ग्रंय है किन्तु यह स्वयम्भू का परवर्ती है । एकमात्र 'स्वयम्भूछंद' ही ऐसा ग्रंथ है जो अपनी संक्षिप्तता के बावजूद विषय के साथ पूर्ण न्याय करता है । मौलिकता प्रदर्शन के व्यामोह में पड़कर विषय को क्लिष्ट बनाने की कृत्रिम चेष्टा भी इसमें नहीं है । अतः छंदों के विकासात्मक अध्ययन की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व अक्षुण्ण है ।
1. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 200 । 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 94 । 3. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृष्ठ 33 । 4. हर्षचरित, चतुर्थ उच्छवास । 5. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 67 । 6. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ. 60 । 7. संस्कृत ड्रामा, डॉ. कीथ, पृ. 351 । 8. सन्देश रासक : फार्मस एण्ड स्ट्रैक्चर, पृ. 96 । 9. सन्देश रासक, पृ. 8, प्र. - हिन्दी ग्रन्य रत्नाकर लिमिटेड, बम्बई । 10. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ।