________________
अपभ्रंश भारती-2
और रासक नामक दो उपरूपकों के लक्षण मिलते हैं। डॉ. कीथ ने नाट्य रासक को 'समूह नृत्य' और 'ताल नृत्य' कहा है ।
वृत्तजाति समुच्चय (4.29-38) में अपभ्रंश छंदों के विवेचन के क्रम में 'रासक' की व्याख्या करते हुए विरहाक ने लिखा है कि अनेक अडिलों, दुहवओं, रड्डाओं और ढोसाओं से रचित होता है उसे रासक कहते हैं
अडिलाहिं दुवहएहिं व मत्तारडाहिं तह अ ढोसाहिं ।
बहुएहिं जो रइज्जई सो भण्णइ रासओ णाम ॥ (4.38)
80
स्वयम्भू के अनुसार
घत्ता छणिआहिं पद्धडिआ सुअण्णरुएहिं ।
साबन्धो कव्वे जणमणअहिरामओ होइ ॥ ( उत्तर 8.24 )
अर्थात् घत्ता, छडणिका, पद्धडिका तथा अन्य मनोहर अक्षरवाले छन्दों से युक्त होकर रासाबन्ध जन-मन को आनन्दित करता है ।
विरहांक एवं स्वयम्भू के रासाबन्ध काव्यों में प्रयुक्त होनेवाले छन्दों के नामों में पार्थक्य दिखाई पड़ता है किन्तु ये विभिन्नताएँ अत्यधिक महत्त्व नहीं रखतीं । इन दोनों का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि रासाबन्ध में वे छंद तो प्रयुक्त होते ही हैं जिनका उल्लेख किया गया है, इनके अतिरिक्त भी अन्यान्य छंद व्यवहुत होते हैं या हो सकते हैं। डॉ. हरिवल्लभ भायाणी का मत
कि रासाबन्ध में विविध प्रकार के छन्द प्रयुक्त होते हैं किन्तु रासा छंद की प्रधानता रहती है ।" इस संबंध में सन्देश रासक के सम्पादक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का मत है कि रासाबन्ध प्रारम्भ में नृत्यप्रधान था किन्तु उसमें क्रमशः गेय तत्वों का प्राधान्य होने लगा । अतः "ज्ञात होता है कि रास में गान का तत्व निरन्तर बढ़ते रहने से उस विशिष्ट गान को ही लोग 'रामा' कहने लगे और उस गान का छंद 'रासा छंद' हो गया । ""
-
बारहवीं शताब्दी के बाद रास ग्रंथों की रचना वृहत् परिणाम में हुई । इनके कथानक भी विविध हुए जैसे - पौराणिक, आध्यात्मिक, नैतिक, लौकिक, प्रेम संबंधी इत्यादि । ये सभी रासो या रास नाम से अभिहित हुए । इसी से डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है। "धीरे-धीरे इन शब्दों का प्रयोग कुछ घिसे अर्थों में होने लगा । जिस प्रकार 'विलास' नाम देकर चरित-काव्य लिखे गये, 'रूपक' नाम देकर चरित-काव्य लिखे गये, 'प्रकाश' नाम देकर चरितकाव्य लिखे गये, उसी प्रकार 'रासो' या 'रासक' नाम देकर भी चरित काव्य लिखे गये । 10
स्वयम्भू ने सप्तताल, पंचताल, त्रिताल, समताल आदि का उल्लेख किया है ( 8.21-22) और कहा है कि ये सभी ताल, संगीत, वाद्य और अभिनय से संपृक्त होकर काव्य में प्रयुक्त होते हैं ।
संगी अवज्जअहिण असंहुत तालमेअभिह सुणसु ।
सत्तताल हुवे कव्वे ॥
पंचताल च होइ कव्वम्मि |
अ तिताल त मुणिज्जासु ॥
सत्तच्छंदोरूअ
पंचच्छंदोरू
तेहिं रूएहिं अ
उत्तर भाग
78.21-22