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करता है । छन्द काव्य का आवश्यक उपादान है । स्वयंभू ने अपभ्रंश छन्दों का संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया है । 'स्वयंभूच्छन्द' ऐसा ग्रन्थ है जो अपनी संक्षिप्तता के बावजूद विषय के साथ पूर्ण न्याय करता है ।
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपभ्रंश- साहित्य में तीन प्रकार के बन्धों की चर्चा की है। उनके अनुसार मुख्य बन्ध तीन हैं - (i) दोहा बन्ध, (ii) पद्धड़िया बन्ध और (iii) गेयपद बन्ध । दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छन्द है । यह मुक्तक और प्रबन्धकाव्य दोनों में समादृत है। सिद्धकवियों का 'बौद्धगान ओ दोहा', सरहपा कृत 'दोहाकोश', कण्हपा का 'दोहाकोश', तिलोपा का 'दोहाकोश' आदि उल्लेखनीय हैं । जैन कवियों ने तो इसे इसके पूरे वैभव के साथ उभाड़ा । देवसेन का 'सावयधम्म दोहा', जोइन्दु का परमप्पयासु (परमात्मा प्रकाश) व योगसार, रामसिंह का 'पाहुडदोहा', मुनिमहचन्द का 'दोहापाहुड़', सन्दर्भगर्भित 'हेमचन्द्र के दोहे' तथा मुंज़ (रासो) के दोहे अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अक्षय स्वर्णकोष हैं ।"
विद्वान् लेखकों ने इस अंक में इन्हीं साहित्यरूपों की विविधता एवं अपभ्रंश के कवियों द्वारा वर्णित विषय-वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया है । यथा
"पउमचरिउ में पंचेन्द्रिय (रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श) बिम्बों के एक से एक उत्तम निदर्शन भरे पड़े हैं जिनका विवेचन स्वतंत्र शोध का विषय है । कहना न होगा कि 'पउमचरिउ' में महाकवि स्वयंभू द्वारा विनिवेशित सभी बिम्ब उनकी चित्तानुकूलता से आश्लिष्ट हैं इसलिए चित्रात्मक होने के साथ ही अतिशय भव्य और रमणीय अतएव रसनीय हैं ।"
"अपभ्रंश काव्य में प्रकृति-चित्रण आलम्बन और उद्दीपन दोनों ही रूपों में हुआ है । महाकाव्यों में स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन मिलता है, खण्डकाव्य में यत्र-तत्र । षड्ऋतु का वर्णन काव्य में संयोगसुख या विरहदुःख को तीव्रतर दिखाने के लिए किया गया है ।”
"जसहरचरिउ में शुकों का क्षेत्रों में चुगना, गौओं का इक्षुखण्ड खाते हुए विचरण करना, वृषभ का गर्जन और जीभ से गौ का चाटना, भैंसों का मन्थरगति से चलना, प्रपापालिका बालिकाओं का पानी पिलाते -पिलाते अपना सुन्दर मुखचन्द्र दिखाकर पथिकों को लुभा लेना आदि सबका बड़ा स्वाभाविक वर्णन हुआ है । सूर्योदय का वर्णन भी कवि ने बड़ा सजीव किया है ।"
जिन विद्वान् लेखकों ने अपने महत्त्वपूर्ण लेखों से इस अंक के कलेवर निर्माण में सहयोग प्रदान किया है उन सभी के हम आभारी हैं और भविष्य में भी इस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते हैं ।
संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकर्त्ताओं के प्रति भी आभारी हैं । मुद्रण हेतु जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि., जयपुर भी धन्यवादार्ह हैं ।
(iv)
कमलचन्द सोगाणी ज्ञानचन्द्र बिन्दूका गोपीचन्द पाटनी