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________________ अपग्रंश-भारती-2 जुलाई, 1992 अपभ्रंश की विशिष्ट विधा दोहा में लोकसंपृक्ति • डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय 'अपभ्रंश अपने समय की विशिष्ट लोकभाषा थी । वह लोकजीवन से सीधे उद्भूत हुई थी। उसमें लोकजीवन की धड़कनें थीं । उसकी भावनाएं थीं । उसके उमंग-उत्साह थे । साहस और शौर्य थे । वीरता और बहादुरी थी । प्रेम-शृंगार था। नीति और धर्म था । यह सब-कुछ, कुछ ऐसा था जैसे जीवन का सोता फूट निकला हो, जिसमें सहज वेग हो । स्वतःस्फूर्त प्रवाह हो। उन्मुक्त संचरण हो । नवीनता का ऐसा चारुत्व, सहजता का ऐसा सौन्दर्य जो पिछली सभी प्राचीन-मध्य भारतीय आर्यभाषाओं-छान्दस-संस्कृत, पालि, प्राकृत को चुनौती दे रहा था । अपभ्रंश की ललकार की तेवर में जो बल था वह और कुछ नहीं, उसकी लोकसंक्ति थी । लोकजीवन से प्रगाढ़ लगाव था । गहरा प्रेम-भाव था । 'अपभ्रंश' शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में कोई मतभेद नहीं रहा, क्योंकि वह लोकसंलग्न था । अपभ्रंश अर्थात् भ्रष्ट, च्युत, स्खलित, विकृत अथवा अशुद्ध । भाषा के सामान्य मानदंड से जो शब्द-रूप च्युत हो, वे अपभ्रंश हैं । अमरकोश, विश्वप्रकाश, मेदिनी, अनेकार्थसंग्रह, विश्वलोचन, शब्द-रत्न समन्वय, शब्दकल्पदम तथा संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ आदि सभी संस्कृत कोशग्रंथों में अपभ्रंश शब्द का अर्थ 'बिगड़ा हुआ शब्द' अथवा 'बिगड़े हुए शब्दोंवाली भाषा' ही पाया जाता है - अपभ्रंशोऽपशब्दः स्यात् । 'शब्दः संस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षिते । तमपभ्रंशमिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम' शब्द-संस्कार से हीन शब्दों का नाम अपभ्रंश है। पर इसके साथ पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ने जिस अर्थ की ओर सकेत किया उस पर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया जो अधिक ध्यातव्य है । उन्होंने अपभ्रंश का अर्थ 'नीचे को बिखरना' बताया । उन्होंने इसको लोकजीवन-जनजीवन
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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