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अपभ्रंश-भारती-2
के गहरे सम्बन्ध से अनायास जोड़ते हुए लिखा कि - देशी और कुछ नहीं, बाँध से बचा हुआ पानी है या वह जो नदी-मार्ग पर चला आया, बाँधा न गया । उसे भी कभी-कभी छानकर नहर में ले लिया जाता था । बाँध का जल भी रिसता-रिसता इधर मिलता आ रहा था । पानी बढ़ने से नदी की गति वेग से निम्नाभिमुखी हुई, उसका 'अपभ्रंश' (नीचे को बिखरना) होने लगा।' इस कथन पर यदि थोड़ी गहराई के साथ विचार किया जाय तो इसके बीज-बिन्दु लोकवादी मुनि पतञ्जलि (150 ई. पूर्व) के उस कथन में भी मिलते हैं, जिसके उदाहरण के सभी शब्द लोकजीवन, ग्रामीण संस्कृति के हैं । उन्होंने यह भी संकेत दिया कि शिष्ट शब्द यदि एक है तो प्यार के प्रवाह में पानी की तरह सरकनेवाले अपभ्रंश शब्द अनेक । इसलिए कि उनमें लोकजीवन की जीवन्तता है । उन्होंने लिखा - 'भूयांसोऽपशब्दाः, अल्पीयांसः शब्दा इति । एकैकस्य हि शब्दास्य बहवोऽपभ्रंशाः तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका, इत्येवम, दयोऽपभ्रंशाः यानि 'गौ जैसे शिष्ट शब्द के लिए गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि अनेक अपभ्रंश शब्द हैं ।
गौ कृषि जीवन की आधारशिला है । वह कृषकों का आर्थिक आधार ही नहीं, सभ्यता और संस्कृति भी है । 'गो धन' के रूप में यदि किसानों का कोष है तो 'गोदान' गोमाता के रूप में उसकी संस्कृति । और यह किसानी-चरागाही संस्कृति अपभ्रंश की वह विशेषता है जिसका भावात्मक विकास हम मध्यकालीन महाकवि सूर से लेकर आधुनिक काल के 'गोदान' तक देख सकते हैं । इस गौ संस्कृति ने अपभ्रंश काल में ही नहीं हिन्दी साहित्य के मध्यकाल की सामंती-जकड़बन्दी को तोड़कर उन्मुक्तता, स्वतंत्रता एवं खुली भूमि में साँस लेना सिखाया था । कृष्ण नंद ग्राम की सामंती सीमा से बाहर निकलकर ग्वाल-बालों के साथ यह कहकर बाहर निकल जाते हैं कि - 'आजु मैं गाई चरावन जैहो और लोकसंपृक्त हो जाते हैं ।
'अपभ्रंश ऐसे ही लोकजीवन किसानी-चरागाही संस्कृति की भाषा थी । दण्डी ने इस मर्मतथ्य को ठीक ही समझा था । उन्होंने अपने 'काव्यादर्श' में लिखा कि - काव्यों में आभीर आदि की भाषा को अपभ्रंश नाम से जाना जाता है - 'आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृता'।' इसके भी बहुत पहले नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि ने 'आभीरोक्ति कह कर इसे संबोधित किया था । उसमें 'आदि' शब्द विशेष महत्वपूर्ण है । इसे गुर्जर या ऐसी ही अन्य जातियों से ही न जोड़ कर लोक या जनसामान्य से जोड़ना चाहिए । डॉ. रामसिंह तोमर ने ठीक ही लिखा है"कोई एक जाति किसी भाषा, विशेषतया अपभ्रंश जैसी व्यापक भाषा का निर्माण नहीं कर सकती। आभीर और गुर्जर शब्दों का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में किया गया प्रतीत होता है, आभीर और गुर्जर से सामान्य जन-समुदाय का अर्थ लिया जाना उचित लगता है जो लौकिक कविता को अधिक प्रेम से पढ़ते होंगे" ।' आचार्यों और कवियों के कथनों से भी.वह देशभाषा, लोकभाषा, जनभाषा ही सिद्ध होती है । आचार्य रुद्रट ने अपने 'काव्यालंकार' 2-12 में 'षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः' कहकर उसे देशभाषा बताया । अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू ने अपनी 'रामायण-पउमचरिउ 1' में 'देसी भाषा-उभय तडुज्जल' तथा दूसरे महाकवि 'पुष्पदंत ने अपने महापुराण,1-8 में 'णउ हउँ होमी वियक्खणु ण मुणमि लक्खणु छंदु देसी ण वियाणमि' अपभ्रंश को लोकसंपृक्ति की भाषा होने की मुहर लगा दी है । इस प्रकार डॉ. कमलचन्द सोगाणी के इस कथन से कोई भी असहमत नहीं हो सकता कि - अपभ्रंश भारतीय आर्य-परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है । इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है । स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचंद्र, रइधू, आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं । कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से