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________________ सम्पादकीय भारत विभिन्न भाषाओं का देश है । यहाँ अति प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषा में साहित्य लिखा जाता रहा है । जीवन के विविध मूल्यों के प्रति जनता को जागृत करना और लोकजीवन के विविध पक्षों को लोकभाषा में अभिव्यक्त करना - ये दोनों ही बातें महत्त्वपूर्ण समझी जाती रही हैं । लोकभाषा में ही जन-चेतना की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति होती है । अपनी व्यक्तिगत अनुभूति के माध्यम से साहित्यकार जन-चेतना में नये तत्त्वों का प्रवेश कराने के लिए लोकभाषा को चुनकर उसमें सांस्कृतिक प्राणों का संचार करता है । ___ 'वेद' लोकभाषा में रचित ग्रन्थ हैं । महावीर और बुद्ध के युग में तथा उसके पश्चात् भी लोकभाषा में साहित्य-निर्माण होता रहा । प्राकृत महावीर, बुद्ध और उनके आस-पास के लाखों लोगों की मातृभाषा रही है । कुछ शताब्दियों तक प्राकृत में विभिन्न प्रकार का साहित्य लिखा जाता रहा । ___ यह एक वास्तविकता है कि लोकभाषा बदलती रहती है और जो बदलती रहती है वही लोकभाषा होती है । धीरे-धीरे 'अपभ्रंश भाषा' के रूप में नई लोकभाषा पनपी । - अपभ्रंश अपने समय की विशिष्ट लोकभाषा बनी । वह लोकजीवन से सीधे उद्भूत हुई थी। उसमें लोकजीवन की धड़कनें थीं । नवीनता का ऐसा चारुत्व, सहजता का ऐसा सौन्दर्य जो पिछली सभी प्राचीन-मध्य भारतीय आर्य भाषाओं-छान्दस्, संस्कृत, पालि, प्राकृत को चुनौती दे रहा था। ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंश भाषा साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए एक सशक्त माध्यम बन गई । अपभ्रंश में साहित्य-रचना 7वीं से 17वीं शताब्दी तक होती रही । इस तरह से एक हजार वर्ष तक इस भाषा में साहित्य-निर्माण होता रहा । स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, रइधू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं । इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है । डॉ. चाटुा के अनुसार - शौरसेनी अपभ्रंश राष्ट्रभाषा बन गई थी । पश्चिम से पूर्व तक उसी का प्रयोग होता था । - साहित्यरूपों की विविधता और वर्णित विषय-वस्तु की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य बड़ा ही समृद्ध और मनोहारी है । अपभ्रंश के कवि साहित्य-चेतना के प्रति इतने सचेत थे, जनता की चित्तवृत्तियों को पकड़ने में इतने जागरूक थे कि उन्होंने प्रायः सभी विधाओं में अपनी रचनाएँ दी । पुराण, महापुराण, चरित, कथा, कहानी, वार्ता, आख्यायिका, रासक, लीलाकाव्य, बेलि, लताकाव्य, फागु, चर्चरी, मंगल, विवाहलो, कक्क, मातृका, बावनी, विप्रमतीसी, पँवाड़ा, दोहाकोश, पद्धड़ियाबंध या कड़वकबन्ध, गेयपदबन्ध, गद्यरूप आदि विविध विधाओं में रचना की । गद्य की अपेक्षा पद्य की सप्रेषणीयता अधिक मुखर होती है । पद्य का हृदयतत्व के साथ तादात्म्य भी शीघ्र हो जाता है । छन्द भावों को आच्छादित कर उनके सौन्दर्यवर्द्धन में सहायक होते हैं । उनका लयात्मक वैशिष्ट्य सम्प्रेषणीयता व काव्यानन्द दोनों की अभिवद्धि (iii)
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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