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अपभ्रंश-भारती-2
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स्वयम्भू के अनुसार यति के महत्त्व को सभी विद्वानों ने समान रूप से स्वीकार नहीं किया है । पिंगल और जयदेव यति को मानते हैं किन्तु माण्डव्य, भरत, काश्यप, सैतव आदि पद के मध्य में यति की स्थिति को अनिवार्य नहीं मानते । स्वयम्भू वर्णवृत्तों में पाद के मध्य में यति की स्थिति का उल्लेख नहीं करते । इन्होंने द्विपदी और रासक को छोड़कर, जो मूलतः मात्रा और तालवृत्त हैं, प्राकृत-अपभ्रंश छंदों में यति को सामान्य रूप से स्थान नहीं दिया है । रासक छंद (8.25) में भी जो 21 मात्रा का छंद है, 14वें स्थान की लम्बी दूरी पर यति होती है । प्राकृत-अपभ्रंश के इस नियम को स्वयम्भू ने संस्कृत के वर्णवृत्तों तक व्यापक कर दिया
उत्तर भाग - 'स्वयम्भूछंद' के उत्तर भाग का प्रारम्भ 'उल्कादिविधि' से हुआ है । वस्तुतः यह पूर्व भाग की 'उल्कादिविधि' का ही शेष अंश हैं ।
उत्तर भाग के तृतीय अध्याय का शीर्षक 'प्राकृतसार' है । 'प्राकृतसार' से स्वयम्भू का तात्पर्य है कि अभी तक विवेचित सभी छंद चाहे वे मात्रावृत्त हों या वर्णवृत्त, प्राकृत के ही छंद हैं । इन्होंने वर्णवृत्तों को भी मात्रागण के आधार पर विवेचित किया है ।
'उत्साहादीनि' शीर्षक के अन्तर्गत अपभ्रंश छंदों का विवेचन है । ग्रंथ के शेष पाँच अध्यायों में स्वयम्भू ने अपभ्रंश छंदों का ही वर्णन किया है । प्रारम्भ में रचनाकार ने अपभ्रंश छंदों की मात्रा-गणना का नियम बताया है । बिन्दुयुक्त इ, हि, उ, हु, ह यदि शब्दान्त में रहें तो छन्द की आवश्यकतानुसार लघु होते हैं । पदान्त में 'ए' और 'ओ भी लघु हो जाते हैं । इसी प्रकार व्यंजन से मिश्रित होने पर शब्द के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में ए और ओ लघु होते हैं । स्वयम्भू ने स्पष्ट किया है कि ऐसे अक्षर जिन्हें सामान्यरूप में गुरु माना है, छन्द की आवश्यकतानुसार लघु हो जाते हैं। किसी चरण के अन्त के लघु अक्षर को भी गुरु मानकर गणना करनी चाहिए यदि छंद की आवश्यक मात्रा में कमी होती जान पड़े । इसी प्रकार छंद की आवश्यकता के अनुसार चरण की अन्तिम मात्रा यदि गुरु हो तो उसे लघु समझ लिया जाना अपेक्षित है । इस नियम के सम्बन्ध में हेमचन्द्र ने स्वयम्भू का पूर्णतः अनुसरण किया है ।
इसी 'उत्साहदीनि' अध्याय में स्वयम्भू ने दोहा, मात्रा, रड्डा, वदनक, उपवदनक, मडिल्ला, अडिल्ला, धवला, मंगला आदि छंदों का विवेचन किया है । ये सभी अपभ्रंश के महत्त्वपूर्ण छंद हैं । इनमें मात्रा, दोहा और रड्डा प्राचीनतम है ।
मात्रा छंद स्वयम्भू के अनुसार पंचपदी है । इसके समचरणों में तीन चतुर्मात्राओं के क्रम से कुल 12 मात्राएँ होती हैं तथा विषमचरणों में क्रमशः पंचमात्रा, पंचमात्रा तथा चतुर्मात्रा तथा द्विमात्रा के क्रम से 16 मात्राएँ । तृतीय तथा पंचम चरणों की चतुर्मात्रा आदि गुरु, अन्तगुरु या सर्वगुरु नहीं हो सकती । आचार्य हेमचन्द्र (5/17) ने स्वयम्भू का पूर्णतः अनुसरण किया है । कवि दर्पणकार का मत इन दोनों से भिन्न है । इनके अनुसार इस छंद की मात्रा-व्यवस्था है - 15, 11, 15, 11, 15 । इस वैभिन्य का कारण संभवतः यह है कि स्वयम्भू ने अन्त्य वर्ण को गुरु मान लिया है ।
दोहा अपभ्रंश का अपना छंद है, इसलिए संस्कृत के प्राचीन छंद-ग्रंथों में दोहे का लक्षण-उदाहरण नहीं मिलता । डॉ. वेलंकर ने द्विपचक्र को ही दोहा कहा है जो आगे चलकर इतना लोकप्रिय हुआ । स्वयम्भू ने दुवहअ (द्विपचक्र) का दो जगह (4.5, 6.90) उल्लेख किया है और दोनों ही स्थानों पर एक ही लक्षण है - विषम चरणों में 14-14 तथा समचरणों में