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अपभ्रंश - भारती-2
12-12 । इसका जो उदाहरण स्वयम्भू ने दिया है उसमें यदि पादान्त वर्ण को गुरु न माना जाय तो 13-11 का ही विधान रह जाता है । आचार्य हेमचन्द्र ने दोहक (6.20.42) का लक्षण 14-12 का ही दिया है समे द्वादश ओजे चतुर्दश दोहकः । नन्दिताढ्य रचित 'गाथालक्षण' के समय तक आकर 'दूहा' शब्द (82) प्रचलन में आ गया था किन्तु इसमें भी दूहा का लक्षण 14-12 का ही है, यद्यपि उदाहरण 13-11 का है । आगे चलकर कवि दर्पणकार ने 13-11 मात्रावाले 'दोहओ' (2.15) को ही स्वीकार किया और सम चरणों के अन्त में गुरु लघु का विधान किया । इनके मत का समर्थन आगे चलकर 'छन्दकोश' ( 521 ) एवं 'प्राकृत पैंगलम्' (1.78) में हुआ । आचार्य हेमचन्द्र (6 20.36), राजशेखर (छंदकोश 116) तथा स्वयम्भू (6.77) ने 'कुसुमाकुलमधुकर' नामक छंद का उल्लेख किया है जिसका लक्षण 'प्राकृत पैंगलम्' के दोहे से मिलता है । 'कुसुमाकुलमधुकर' छंद के विषम- सम चरणों में क्रमशः 13-11 मात्राएँ होती हैं ।
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'रड्डा' एक द्विभंगी छंद है जो मात्रा और दोहा के मेल से बनता है । इसमें 9 चरण होते हैं पाँच मात्रा के और चार दोहा के । हेमचन्द्र के अनुसार इसके तृतीय और पंचम चरण में अनुप्रास रहता है। विवरणात्मक कविता के पहले यह अपभ्रंश-काव्यों का बड़ा लोकप्रिय छंद रहा है । सम्भवतः यह मात्रा और दोहा से भी पुराना छंद है। छंदकोश (5.34), छंदोऽनुशासन (5.23), कविदर्पण (2.35), स्वयम्भूछंद (4.11), वृत्त जाति समुच्चय (4.31 ), प्राकृत पैंगलम् (1.133) आदि सभी छंद ग्रंथों में इसका उल्लेख पाया जाता है । प्राकृत पैंगलम् (1.136) में इसके सात भेद बताए गये हैं। करभी, नंदा, मोहिनी, चारुसेना, भद्रा, राजसेना तथा ताटंकिनी। स्वयम्भू में इन भेदों का उल्लेख नहीं मिलता ।
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स्वयम्भू ने कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया है जो अवसर विशेष पर किसी भी छंद के लिए व्यवहृत हो सकते हैं, जैसे धवल, मंगल आदि । जब काव्य में नायक का चित्रण एक वृषभ की तरह होता है उस छंद को धवल कहते हैं धवलणिण अ पुरिसो वणिज्जइ ते सा धवला (4.16 ) । हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत छह उदाहरणों में मात्र एक उदाहरण में ही यह परिभाषा चरितार्थ की है, शेष में नहीं । इसलिए कहा जा सकता है कि व्यावहारिक रूप में इस परिभाषा को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया गया । वस्तुतः 'धवल' सामान्य शब्द है जो किसी भी छंद के साथ लगा दिया जाता है। जैसे उत्साह धवल हेला धवल वदन धवल, अडिला धवल आदि ।
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धवल के तीन रूप होते हैं अष्टपद, षट्पद और चतुष्पद । स्वयम्भू का अष्टपद धवल (4.17) हेमचन्द के यशोधवल की तरह है यद्यपि छठे तथा आठवें चरणों के सम्बन्ध में दोनों में अन्तर है । इसी प्रकार षट्पद धवल का लक्षण हेमचन्द्र से मेल नहीं खाता, विशेषतः चौथे तथा छठे चरण के सम्बन्ध में । आचार्य हेमचन्द्र ( 5.35) के अनुसार षट्पद धवल के प्रथम- चतुर्थ चरणों में दो षण्मात्रा तथा एक द्विमात्रा होती है न कि स्वयम्भू की तरह तीन षण्मात्रा । इसी प्रकार द्वितीय - पंचम चरणों में दो चतुर्मात्राएं होती हैं न कि दो षण्मात्रा । स्वयम्भू का चतुष्पद धवल आचार्य हेमचन्द्र का भ्रमर धवल (5.37) है । स्वयम्भू ने गुण धवल का उल्लेख नहीं किया है जबकि हेमचन्द्र ( 5.36) में इसका उल्लेख है ।
'चंदशेखर' के अनुसार 'मंगल छंद' का प्रयोग विवाहादि मंगल कार्यों के लिए होता है। यदि मंगल कार्यों के लिए उत्साह, हेला, वदना, डिला आदि छंदों का गान होता है तो उसे भी उत्साह मंगल, हेला मंगल, धवल मंगल, डिला मंगल आदि कहा जाता है । स्वयम्भू ने कहा कि यदि ये निश्चित उद्देश्य को लेकर प्रयुक्त होते हैं तो ये सामान्य नाम बन जाते हैं । विवाह