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________________ अपभ्रंश-भारती-2 73 व्यास इस मत से सहमत नहीं हैं । इनका कहना है कि गाथा विषम द्विपदी है जबकि अनुष्टुप चतुष्पाद छंद है । डॉ. व्यास स्कन्धक को गाथा का ही एक भेद मानते हैं । डॉ. वेलकर का अनुमान है कि विषम चरणवाले छंदों का विकास निश्चितरूप से समचरणवाले छंदों के बाद ही हुआ होगा । स्कन्धक समद्विपदी है और गाथा विषमद्विपदी । स्कन्धक के प्रत्येक चरण में आठ चतुर्मात्राएं होती हैं । इसी से गीति छंद निकला है जिसके प्रत्येक चरण में 71/,x4-30 मात्राएँ होती हैं । यही गीति उपगीति होती है जब प्रत्येक चरण में 27 मात्राएं (5 चर्तुमात्रा + लघु + 11/, चतुर्मात्रा ) होती हैं । इस प्रकार स्वयम्भू ने दो प्रकार की छान्दिक इकाई रखी है - एक 30 मात्रा की और दूसरी 27 मात्रा की । इन्हीं से दो छंद-गाथा और उदगीति बने हैं। गाथा की प्रथम अर्धाली में 30 मात्रा और द्वितीय में 27 मात्राएँ होती हैं । उद्गीति इसका ठीक विलोम है । इसकी प्रथम अर्धाली में 27 तथा द्वितीय अर्धाली में 30 मात्राएं होती हैं । प्रारम्भ में गाथा में दो ही चरण थे। बाद में इसे चतुष्पाद बना दिया गया । इसकी दोनों अर्धालियों में 12 मात्राओं (तीन चतुर्मात्रा) के बाद यति होती है । यति के पूर्व का अंश ही चरण बन गया है । __प्राकृत-गाथा और इसका संस्कृत रूप आर्या का प्रयोग विवरणात्मक कविता के लिए होने लगा । इस अर्थ में इसकी समानता संस्कृत के अनुष्टुप छंद से की जा सकती है । पथ्या (स.च. 4x3, 5, 15-20 मात्रा) का उल्लेख विरहांक (वृत्त जाति समुच्चय 3/ 24) ने किया है । इसके द्वारा वर्णित शालभजिका छंद (वृत्त जाति समुच्चय 4/79) भी पथ्या की तरह ही है जिसके प्रत्येक चरण में 20 मात्राएं होती हैं । हेमचन्द्र (4/54) ने जिस शालभजिका छद का उल्लेख किया है वह विरहांक से भिन्न है । हेमचन्द्र के शालभजिका छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएं होती हैं । 'स्वयम्भूछंद' के द्वितीय अध्याय में गलितक और उससे निष्पन्न छंदों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । 'गलितक' एक छंद-विशेष भी है और एक वर्ग-विशेष भी । छन्द-विशेष के रूप में यह 21 मात्रा (5x2, 4x2, 3) का समचतुष्पदी छंद है । वर्ग-विशेष के रूप में, स्वयम्भू के अनुसार स्कन्धक-वर्ग के छन्दों के अतिरिक्त वे सभी छंद गलितक हैं जिनमें तुक की योजना होती है। हेमचन्द्र (4/25) ने गलितक-प्रकरण के अन्तर्गत 24 प्रकार के गलितकों का विवेचन प्रस्तुत किया है जिनमें कुछ द्विपदी, कुछ सम चतुष्पदी और कुछ सम तथा कुछ अर्धसम छंद हैं । इससे ज्ञात होता है कि मंगला, धवला, रासक, वस्तुक आदि की भाँति यह शब्द भी सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त होता रहा है । स्वयम्भू ने गलितक के अन्तर्गत मात्र माला-गलितक, मुग्ध गलितक और उग्र गलितक का ही विवेचन किया है । हेमचन्द्र द्वारा उल्लेखित गलितक के विभिन्न प्रकारों का विवेचन स्वयम्भू में नहीं है। तृतीय अध्याय 'खंजक जाति' शीर्षक है । इस अध्याय का अधिकोश उपलब्ध नहीं है। इसमें खंजक और इससे निष्पन्न छंदों का विवेचन है । 'खंजक' छंद का सर्वप्रथम विवेचन विरहांक के 'वृत्ति जाति समुच्चय' (4/18) में उपलब्ध होता है । विरहांक के अनुसार यह अर्धसम चतुष्पदी है जिसके विषम चरणों में 9 तथा समचरणों में 11 मात्राएं (4,515, 4, 2, 515 ) होती है । कविदर्पण (2.23), स्वयम्भू (3.2) तथा हेमचन्द्र (4.50) के अनुसार यह सम चतुष्पदी है जिसकी मात्रागण व्यवस्था है - 3, 3, 4x3, 3, 5 - 23 मात्रा हेमचन्द्र के अनुसार
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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