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________________ अपभ्रंश-भारती-2 ___'पंच अंश' से स्वयम्भू का तात्पर्य पंचमात्राओं से है - 2, 3, 4, 5, 6 मात्रागण। विरहांक ने पंचमात्राओं के तकनीकी नाम रखे हैं । जैसे - आयुध - 5 मात्रा, आभरण - S, कदलिका - IS, गज = 4 मात्रा, तूर्य - III, बाण - 5 मात्रा, शब्द - | मात्रा इत्यादि। आगे चलकर 'प्राकृत पैंगलम्' में भी विरहांक का अनुसरण करते हुए मात्राओं के तकनीकी नाम रखे गए । स्वयम्भू ने इन पाँच अंशों या मात्राओं के लिए कोई तकनीकी नाम नहीं रखा है वरन् इसके लिए उसने वर्णमाला के अक्षरों को स्वीकार किया है । जैसे - दुकल - द, तिकल = त, चौकल - च, पंचकल - प, छकल - छ । हेमचन्द्र ने स्वयम्भू का पूर्णतः अनुसरण किया है सिर्फ 'छ' के स्थान पर उन्होंने 'ष' रखा है जो 'षण्मात्रा को द्योतित करता है । इस प्रकार स्वयम्भू का दृष्टिकोण विषय को स्पष्ट करने में एकदम सहायक है । कवि दर्पणकार ने विषय को एकदम उलझा दिया है । उन्होंने द्विमात्रा, त्रिमात्रा, चतुर्मात्रा, पंचमात्रा और षण्मात्रा के लिए क्रमशः क, च, त, ट, प अक्षर रखे हैं । षण्मात्रा के लिए 'प' अक्षर रखना विषय को उलझानेवाला ही है । गुरु-लघु के स्थान को द्योतित करने के लिए भी स्वयम्भू ने सीधा रास्ता अपनाया है। प्रारम्भ के लिए वे पुव्व, मुह, आइ आदि विशेषण रखते हैं । मध्य के लिए मज्झा, जत्थर आदि तथा अन्त के लिए अन्त, उत्तर, पार, निहान, अवसान आदि । लघु-गुरु के लिए लकार-गकार, उर्ध्व-दीर्घ, अवकार-वकार आदि । इस प्रकार के प्रतीक विधान का उपयोग जनाश्रयी एवं विरहांक ने भी किया है। प्रारम्भ में स्वयम्भू ने लघु-गुरु की गणना का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । शब्दान्त में 'इम' विकल्प से लघ होता है। इसी प्रकार शब्दान्त में 'हि' लघु होता है । पद के अ 'ए' और 'ओ' लघु होता है । 'र के साथ जिस व्यंजन का संयोग होता है वह व्यंजन लघु हो जाता है । जैसे - वोद्रहि । यहाँ 'हि' लघु है क्योंकि इसके पूर्व 'द्र' है । इसमें 'र' व्यंजन लगा है । 'ह' व्यंजन के संयोग से वर्ण लघु हो जाता है । जैसे - अज्ज वि ण्हवणविसेणं। यहाँ 'वि' लघु है क्योंकि 'ण्हवणविसेंण' के ण्ह के पूर्व है । संस्कृत में सामान्यतः जो वर्ण गुरु माना जाता है वह प्राकृत में लघु हो सकता है इस प्रकार प्राकृत में इम्, हिं, ए, ओ (शब्दान्त में) लघु होते हैं । इसी प्रकार ह, र, व्यंजन के पूर्व पड़नेवाला वर्ण लघु होता है । कविदर्पण (1/5-6) में भी गुरु-लघु का नियम बताते हुए कहा गया है कि प्राकृत में ए, ओ, हिं, ई, (पादान्त) तथा अपभ्रंश में हैं, हिं, हिं, हं, (पादान्त) में लघु होते हैं । इसी प्रकार स्वर ए, ओ जब व्यंजन से मिलते हैं तब शब्द के मध्य में भी लघु होते हैं । द्र, ल्ह, न्ह के पूर्व आनेवाला वर्ण भी लघु होता है । ग्रंथ का प्रथम अध्याय 'गाथादिविधि है । डॉ. वेलंकर के अनुसार इसका वास्तविक नाम 'स्कन्धकजाति' होना चाहिए था क्योंकि इस अध्याय में सर्वप्रथम स्कन्धक का ही विवेचन किया गया है । स्वयम्भू ने स्कन्धक को मूल और गाथा को उससे निष्पन्न माना है । इसके विपरीत पिंगल, विरहाँक, हेमचन्द्र आदि गाथा को मूल और स्कन्धक को इसी से उत्पन्न मानते हैं । डॉ. वेलंकर के अनुसार स्वयम्भू का मत अधिक तर्कपूर्ण है । स्कन्धक समद्विपदी छंद है और इसके प्रत्येक चरण में आठ चतुर्मात्राएं = बत्तीस मात्राएं होती हैं । जनाश्रयी (5/44) इसे आर्यागीति कहते हैं । गाथा विषम द्विपदी छंद है । इसके प्रथम भाग में 30 मात्राएं (12+18) होती हैं और द्वितीय भाग में 27 (12+15) मात्राएं । डॉ. वेलंकर गाथा को विषम द्विपदी ही मानते हैं जबकि संस्कृत के आचार्य इसे चतुष्पदी कहते हैं । यों वेदों में भी गाथा का अस्तित्व है किन्तु वैदिक गाथाएं वर्णिक हैं, मात्रिक नहीं । विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि गाथा का मात्रिक रूप द्रविण जाति की देन है । डॉ. वेलंकर ने गाथा का विकास अनुष्टुप से माना है । डॉ. भोलाशंकर
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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