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________________ अपभ्रंश भारती-2 जुलाई, 1992 - 71 स्वयम्भूछंद : एक विश्लेषण • डॉ. गदाधर सिंह 'स्वयम्भूछंद' प्राकृत अपभ्रंश छंदशास्त्रीय परम्परा के उत्कृष्टतम ग्रंथों में से एक है । इसका सम्पादन डॉ. एच. डी. वेलंकर ने 'ओरियंटल इंस्टीट्यूट ऑफ बड़ौदा की प्रति तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन से प्राप्त प्रति के आधार पर किया है । यह रचना अपूर्ण है क्योंकि अभी भी इसके कुछ अंश अप्राप्य हैं । इसके दो भाग हैं पूर्व भाग और उत्तर भाग । - ""स्वयम्भूछंद' के रचनाकार के सम्बन्ध में मतभेद है । कुछ लोगों की मान्यता है कि 'पउमचरिउ' के रचयिता स्वयम्भू एवं 'स्वयम्भूछंद' के रचयिता स्वयम्भू दोनों भिन्न व्यक्ति हैं किन्तु डॉ. वेलंकर, भयाणी, नाथूराम प्रेमी प्रभृति विद्वान दोनों को एक मानते हैं । इनका तर्क यह है कि स्वयम्भू ने छंदों के उदाहरण तत्कालीन अपभ्रंश ग्रंथों से दिए हैं और उनके रचयिताओं के नाम भी लिख दिये हैं किन्तु कुछ ऐसे उद्धरण भी हैं जिनके रचयिता का नाम नहीं दिया गया है। इनमें से अधिकांश उद्धरण 'पउमचरिउ' में मिल जाते हैं । इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चूंकि ये सभी उद्धरण ग्रंथकर्ता के निजी हैं अतः उनका नामोल्लेख करना उसने आवश्यक नहीं समझा । 'स्वयम्भूछंद' में कुल 13 अध्याय हैं जिनमें आठ अध्यायों में प्राकृत छंदों का तथा शेष पाँच अध्यायों में अपभ्रंश छन्दों का विवेचन हुआ है । प्रत्येक अध्याय के अन्त में रचनाकार ने लिखा है 'पंच संसार हुए बहुलत्थे लक्खलक्खण विसुद्धे । एत्य सअंभुच्छंदे । इसका तात्पर्य कि रचनाकार की मान्यता है कि इसमें पाँच अंशों का सार प्रस्तुत है ।
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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