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अपभ्रंश-भारती-2
जें सरयहाँ आगमणे
कोञ्चणइहे तीरेण संठियई, लय-मण्डवें गम्पि परिट्ठियई । छुडु जे छुडु जें सरयहाँ आगमणे, सच्छाय महादुम जाय वणें। णव-णलिणिहें कमलई विहसियई, णं कामिणि-वयणई पहसियई । तहिं तेहऐं सरऐं सुहावणऐं, परिभमइ जणदणु काणणएँ । वणे ताम सुअन्धु वाउ अइउ, जो पारियाय-कुसुमब्भहिउ ।
कड्ढिउ भमरु जिह ते वाएँ सुट्ट सुअन्धे । धाइउ महुमहणु जिह गउ गणियारिहें गन्धे ।
- पउमचरिउ, 36.2 - क्रोंच नदी के किनारे-किनारे होते हुए वे (राम-सीता और लक्ष्मण) एक लतामण्डप में जाकर बैठ गए । शीघ्र ही शरद् ऋतु के आने पर वन में महागुम सुन्दर कान्तिवाले हो गए । नव-नलिनियों के कमल इस प्रकार विकसित थे मानो स्त्रियों के हँसते हुए मुख हों । उस सुहावनी शरद् ऋतु में लक्ष्मण वन में भ्रमण करने लगा । तब सुगन्धित वायु आई जो पारिजात पुष्पों से उत्पन्न थी । उस सुगन्धित वायु से भ्रमर की तरह आकर्षित होकर, लक्ष्मण उसी प्रका दौड़े जिसप्रकार हथिनी की गंध से हाथी दौड़ता है ।
- अनु., डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन