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________________ 68 अपभ्रंश-भारती-2 का उदात्त सौन्दर्य अतिशय नेत्रावर्जक है । साथ ही, रौद्र और वीर रस के आसंग में लक्ष्मण के युद्धवीर का परुष-बिम्ब भी मनोमोहक है इसी क्रम में, भयानक रस के आसंग में उपस्थापित अनुरणनात्मक कठोर श्रवण बिम्ब का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जो लक्ष्मण के धनुष उठाने से उत्पन्न स्थिति के माध्यम से निर्मित है - अप्फालिउ महमहणेण धणु । धणु-सद्दे समुट्ठिउ खर-पवणु ॥ खर-पवण-पहय जलयर रडिय । रडियागमे वज्जासणि पडिय ॥ पडिया गिरिसिहर समुच्छलिय । उच्छलिय-चलिय महि णिद्दलिय ॥ णिद्दलिय भुअंग विसग्गि मुक्क । मुक्कंत णवर सायरहुँ ढुक्क ॥ ढक्कतेहिं बहल फुलिंग पित्त । घण सिप्पि-संख-संपुड पलित्त ॥ धग-धग-धगति मुत्ताहलाई । कढकढकढंति सायर-जलाई ॥ हस-हस-हसति पुलिणतराई । जलजलजलति भुअणतराई ॥ - 27, 5.1-7 अर्थात, लक्ष्मण ने अपने धनुष पर डोरी चढ़ाकर उससे टंकार उत्पन्न किया । धनुष्टंकार से तेज हवा चलने लगी जिससे आहत मेघ गरज उठे और मेघ-गर्जन से वज्रपात होने लगा । पहाड़ गिर पड़े और उसके शिखर उछलने लगे, जिससे दलित धरती डोलने लगी । धरती के दलित होने से पातालवासी नाग फुफकार करने लगे । नागों की विषाग्नि समुद्र में जब पहुँची, तब उससे ज्वाला उठने लगी और चिनगारियाँ छूटने लगी जिससे सीपी, शंख-सम्मुट जल उठे । मुक्ताफल 'धक-धक करने लगे । सागर का जल 'कड़-कड़ करने लगा । समुद्र तट 'हस-हस' करके धंसने लगा । भुवनों के अन्तराल जलने लगे । यहाँ पर्वत, सर्प, हवा, मेघ, धरती और समुद्र का भयानक बिम्ब प्रत्यक्ष रूपविधान का रोमांचकर उदाहरण है, जिसमें भयंकर चाक्षुष बिम्ब और परुष श्रवण-बिम्ब का समेकित उपन्यास हुआ है । यहाँ सफल बिम्बग्रहण और प्रभावक बिम्बविधान के लिए महाकवि स्वयम्भू ने भयानक सौन्दर्य की अद्भुत कल्पना की है । हालाकि, महाकवि द्वारा निर्मित यह बिम्ब केवल शब्दाश्रित इस प्रकार, 'पउमचरिउ में महाकवि स्वयम्भू द्वारा अनेक शब्दाश्रित और भावाश्रित बिम्बों का विधान किया गया है जिनमें भाषा और भाव दोनों पक्षों का समावेश हआ है। 'पउम में अनेक ऐसे स्थल सुलभ हैं जहाँ महाकवि की कल्पना मूर्तरूप धारण करके उपमा और रूपकों के माध्यम से निर्मित होकर भी स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ बिम्बों की सृष्टि करने में समर्थ हुई है । बहुधा वस्तुविशेष के प्रति ऐन्द्रिय आकर्षण के कारण ही महाकवि बिम्ब-विधान की ओर प्रेरित हुआ है । 'पउमचरिउ में प्राप्य कतिपय मोहक बिम्ब-विधायक प्रयोग समेकित रूप में द्रष्टव्य 1. 'णहंगणेण घणु गज्जिउ' (आकाश के आँगन में मेघ का गर्जन) - चाक्षुष तथा श्रवण बिम्ब (29, 3.5) । 2. 'कामिणि-चल-मण मच्छुत्थल्लिएँ (कामिनियों के चंचल मन-रूप मत्स्य) - चाक्षुष गत्वर बिम्ब (30,4.7) ।
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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