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________________ अपभ्रंश-भारती-2 67 द्वारा भी संवेदन या तीव्र अनुभूति की प्रतिकृति के माध्यम से स्थापत्य-बिम्ब का मनोहारी निर्माण हुआ है । इसमें वास्तविक और काल्पनिक दोनों प्रकार की अनुभूतियों से निर्मित बिम्ब तथ्यबोधक भाव-विशेष का सफल संवहन करते हैं । महाकवि द्वारा रवि शिशु को पिला रही पृथ्वी के स्तन-रूप में वर्णित त्रिकूट पर्वत और हाथी पर बैठी सजी-सैवरी वधू-रूप में चित्रित लंकानगरी का इन्द्रियगम्य बिम्ब सौन्दर्योदभावक और सातिशय कला-रुचिर भी है । 'सचंदणु' और 'ससावउ प्रयोग में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों पक्षों पर लागू होनेवाले बिम्ब श्लेष से निर्मित हुए हैं । 'महुअर-रुणुरुंटतु' में श्रवण-बिम्ब तथा 'वणु सीयलु' में स्पर्श-बिम्ब के विन्यास से समग्र चाक्षुष बिम्ब को ततोऽधिक आवर्जकता प्राप्त हुई है । प्रत्यक्ष रूपविधान के अन्तर्गत नवमेघ का एक उदात्त कल्पनामूलक चाक्षुष बिम्ब दर्शनीय गज्जत-महागय-घण-पबलु । तिक्खग्ग-खग्ग-विज्जुल-पबलु । हय-पडह-पगज्जिय-गयणयलु । सर-धारा-धोरणि-जल-बहलु ॥ धुअ-धवल-छत्त-डिंडीरवरु । मंडलिय-चाव-सुरचाव-करु । सय-संदण-वीढ-भयावहुलु । सिय-चमर-वलाय-पति-विउलु ॥ ओरसिय-संख-ददुर-पउरु । तोणीर-मोर-णच्चण-गहिरु ॥ - 27, 4.1-6 अर्थात्, (नवमेघ) गरजते महाराज-रूप घन से प्रबल तथा तीक्ष्ण अग्रभाग या तीखी नोकवाली तलवार-रूपी बिजली से चंचल था । जो आहत नगाड़ों की तरह आकाश को गर्जन-गम्भीर रहा था, जो बाण की धारा की पक्ति के समान जलवृष्टि कर रहा था, जो काँपते हुए धवल छत्र-रूप फेन से सुन्दर लग रहा था, जिसके हाथ में मण्डलाकार धनुष-रूप इन्द्रधनुष था, जो सैकड़ों रथपीठ से भी अधिक भयावह था, जो श्वेत चमर-रूप बकपक्तियों से विशाल था, जो बजते शंख-रूप मेंढ़कों से भरा था और जो तूणीर-रूप मयूरों के नृत्य से गम्भीर था । प्रस्तुत चाक्षुष बिम्ब में रूपकों के माध्यम से गत्वर बिम्ब का आकर्षक समाहार हुआ है, जिसे बिजली की चपलता, फेन के कम्पन और मयूर के नृत्य में प्रत्यक्ष किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आहत नगाड़ों तथा बजते शंखरूप मेंढकों में श्रवण-बिम्ब एवं काँपते धवल छत्र-रूप फेन में स्पर्श-बिम्ब का विधान भी हुआ है । साथ ही, महाकवि ने अपना सार्थक रंगबोध (धवल छत्र और श्वेत चमर) भी उपन्यस्त किया है । इस सन्दर्भ में महाकवि का मनोरम रंग बोधपरक एक चाक्षुष बिम्ब अवलोकनीय है - त पेक्खेवि गुज-पुज-णयणु । दट्ठो?रु?-रोसिय-वयणु । आबद्ध-तोणु धणुहरु अभउ । धाइउ लक्खणु लहु लद्ध-जउ ॥ - 27, 4.7-8 अर्थात्, उस नवमेघ को देखकर गुंजाफलों के समान (लाल) आँखोंवाला, ओठ चबाते हुए रुष्ट और क्रुद्धमुख, अभय, धनुर्धर और विजयी लक्ष्मण, तरकस बाँधे हुए, शीघ्र दौड़ा । कहना न होगा कि प्रस्तुत भावाश्रित चाक्षुष बिम्ब के अंकन में महाकवि ने अपने रंगबोध का परिचय प्रस्तुत किया है । इस सन्दर्भ में गुंजाफल के क्रोधारक्त आँखों का रंगबोधमूलक बिम्ब
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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