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अपभ्रंश भारती-2
वही
( 6 ) का वि कन्त सिरें बन्ध फुल्लई । बत्थई परिहावे अमुल्लई ॥ का वि कन्त आहरणइँ ढोयइ । का वि कन्त परमुहु जें पलोयइ ॥ कोई कान्ता अपने सिर में फूल खोंस रही थी और अमूल्य वस्त्र पहन रही थी। कोई कान्ता गहने ढो रही थी । कोई कान्ता दूसरे का मुख देख रही थी ।
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क्रमशः
1. स्वयंभूछन्द 8.15. संपादक एच. डी. वेलणकर, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर राज. 1962 ।
2. “From these pieces....... ..... called the Paddhadika" page'no. 9596, पउमचरिउ, स. डॉ. हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी, भारतीय विद्या भवन, बम्बई,
1953 I
3. "From this it is clear that here are term Paddhadia stands not for one particular metre but a class of metres" वही, पृ. स. 95 |