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अपभ्रंश-भारती-2
थी और जिसका सम्बन्ध लोक-व्यवहार में विकसित हो रही हिन्दी की बोलियों से अत्यन्त घनिष्ठ और आत्मीय था ।
इन चारण और जनकवियों में भी सभी कवि एक से महत्त्व के अधिकारी नहीं हैं । इस काल की अधिकांश कृतियों के प्रामाणिक पाठ उपलब्ध नहीं हैं और उनमें से अनेक परवर्ती प्रक्षेपों के कारण विकृत हो चुके हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिन अनेक कवियों को अपने इतिहास में आदिकालीन कवियों के रूप में स्थान दिया है, उनमें से बहुत से कवियों की रचनाएं नोटिस मात्र हैं और अनेक का काव्य आदिकाल में न लिखा जाकर बहुत बाद में लिखा गया है, अतः खुमानरासो के रचयिता दलपति विजय, परमालरासो के रचयिता जगनिक जैसे कवियों को आदिकालीन कवि-दीर्घा में स्थान देना या महत्त्वपूर्ण स्थान देना सन्दिग्ध हो जाता है । यही स्थिति जनकवि अमीर खुसरो की भी है । अमीर खुसरो आदिकाल का अत्यन्त लोकप्रिय और कृती कवि है किन्तु उसकी हिन्दी-रचनाएं लोकप्रियता के रंग-रोगन से इतनी पुत चुकी हैं कि उनके वास्तविक रूप का सन्धान कर पाना कठिन हो गया है । अमीर खुसरो आदिकाल का महत्त्वपूर्ण कवि तो है किन्तु उसका काव्य अपने वर्तमान रूप में आदिकाल का महत्त्वपूर्ण काव्य नहीं रह गया है । ऐसी स्थिति में आदिकाल की काव्य-दीर्घा में जिन कवियों के चित्र अधिकार एवं महत्त्वपूर्वक टाँगे जा सकते हैं उनमें अद्दहमाण, चन्द्र बरदायी, नरपति नाल्ह और विद्यापति ही हैं। ये चारों कवि आदिकालीन (ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी) अवधि-खण्ड के कवि हैं, इन चारों ने तत्कालीन काव्य-रूपों और कथानक-रूढ़ियों का अपने काव्य में प्रयोग किया है, ये सभी अपभ्रंश से इतर उस भाषा के कवि हैं जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'देशभाषा' का नाम दिया है । इन देशभाषाओं का विकास अपभ्रंश की अन्तिम अवस्था से हुआ है और ये मध्यदेश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित थी । इनमें अद्दहमाण पछाह में प्रचलित परवर्ती अपभ्रंश के कवि हैं (यद्यपि उन्होंने अपना काव्य पूर्वदेश में लिखा); अमीर खुसरो पछांह में प्रचलित खड़ीबोली के चन्द्र बरदायी और नरपति नाल्ह राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में व्यवहृत डिंगल और पिंगल के कवि हैं तथा विद्यापति ध्रुव पूरब में प्रचलित मैथिली के । वास्तव में इस युग में किसी एक केन्द्रीय काव्य-भाषा का निर्माण नहीं हो पाया था और संस्कृत या अपभ्रंश का स्थान हिन्दी की कोई एक बोली नहीं ले पायी थी । आदिकालीन कवि अधिकांशतया जनता के कवि थे और उनका काव्य जनता के प्रति सम्बोधित था । ऐसी स्थिति में जनता की बोली में अपना काव्य लिखे बिना उनकी कोई गति नहीं थी । यह प्रवृत्ति भक्तिकाल तक चलती रही और कहीं रीतिकाल में जाकर समस्त हिन्दी क्षेत्र में ब्रजभाषा के रूप में एक केन्द्रीय काव्य-भाषा की सर्वमान्य प्रतिष्ठा हो सकी ।
यहाँ अपभ्रंश के अवसान के दिनों के दो देशभाषा कवियों - अद्दहमाण और नरपति नाल्ह के काव्य और काव्य-व्यक्तित्व का संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है ।
अद्दहमाण
पहले चन्द्र बरदायी को हिन्दी का आदिकवि स्वीकार किया जाता था किन्तु जबसे परवर्ती अपभ्रंश के काव्य को हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट करने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई है तब से स्वयंभू, पुष्पदंत, अद्दहमाण जैसे कवियों को हिन्दी का प्रारम्भिक कवि स्वीकार किया जाने लगा है । बारहवीं शताब्दी के लगभग अपभ्रंश अपनी व्याकरणिक जटिलताओं का परित्याग कर एक जनबोली के रूप में प्रतिष्ठित हो रही थी । यह परवर्ती अपभ्रंश, जिसे कभी अवहट कहा जाता है और कभी पुरानी हिन्दी, यद्यपि अपभ्रंश से पूरी तरह से पृथक् नहीं हुई थी किन्तु वह एक नयी विकसित भाषा का आभास निश्चय ही देने लगी थी । अद्दहमाण (अब्दहमाण) इसी परवर्ती