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अपभ्रंश - भारती-2
जुलाई, 1992
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अपभ्रंश के अवसान के दो कवि
• डॉ. कान्तिकुमार जैन
आदिकालीन काव्य-दीर्घा में इतिहासकारों ने जिन कवियों की कृतियों को स्थान दिया है उनमें सरहपा, शबरपा जैसे सिद्ध; गोरखनाथ जैसे नाथ; स्वयंभू, पुष्पदन्त, हेमचन्द्र, सोमप्रभ सूरि, मेरुतुंग जैसे जैन; दलपति विजय, नरपति नाल्ह, जगनिक, चन्द्र बरदायी जैसे चारण एवं विद्यापति और अमीर खुसरो जैसे जनकवि हैं । इन कवियों की कृतियों का महत्त्व साहित्य के लिए जितना है उतना ही भाषा के लिए है । तत्कालीन भाषा के अध्ययन के लिए सिद्धों, नाथों और जैनों की रचनाएं प्रचुर एवं प्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत करती हैं । वास्तव में इन सभी धर्म-उपदेशकों ने परवर्ती साहित्य की भूमिका प्रस्तुत की । नाथ - साहित्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद · द्विवेदी ने जो कहा है, न्यूनाधिक मात्रा में वह सिद्ध एवं जैन - साहित्य के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है "उसने परवर्ती सन्तों के लिए श्रद्धाचरण - प्रधान धर्म की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। जिन सन्त-साधकों की रचनाओं से हिन्दी साहित्य गौरवान्वित है, उन्हें बहुत कुछ बनीबनायी भूमि मिली थी ।" जैनों ने महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य, लौकिक प्रेमकाव्य, रूपक साहित्य, कथा साहित्य एवं स्फुट काव्य आदि के जो काव्यरूप प्रचलित किये थे, वे परवर्ती कवियों द्वारा स्वीकार किये गये । वास्तव में हिन्दी के आदिकालीन काव्य की दीर्घा में जिन कवियों के चित्र अधिकारपूर्वक टाँगे जा सकते हैं, वे चारण और जनकवि ही हैं । परवर्ती खोजों ने परवर्ती अपभ्रंश के अद्दहमाण जैसे कवियों को भी इस दीर्घा का पात्र स्वीकार किया है । उसका यही है कि अद्दहमाण जैसे कवि अपनी काव्य-भाषा के लिए रूढ़िबद्ध और टकसाली अपभ्रंश का मोह त्यागकर उस परवर्ती अपभ्रंश का साहसपूर्वक प्रयोग कर रहे थे जो जन बोलियों के निकट