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अपभ्रंश-भारती-2
कसाउ (महापुराण, 17.28) – कषाय । राग-द्वेष का ही अपर नाम कषाय है । जो आत्मा को कसे अर्थात दुःख दे उसे ही कषाय कहते हैं । इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाला विकार मोह-राग-द्वेष ही कषाय है अथवा जिससे संसार की प्राप्ति हो वही कषाय है। कषाय चार प्रकार की होती है - (1) क्रोध - गुस्सा करने को क्रोध कहा जाता है । जब हम ऐसा माने कि इसने मेरा बुरा किया तो आत्मा में क्रोध उत्पन्न होता है । (2) मान - घमण्ड को ही मान कहा जाता है । जब हम यह मान लेते हैं कि दुनिया की वस्तुएँ मेरी हैं, मैं इनका स्वामी हूँ तो मान उत्पन्न होता है । (3) माया - छल-कपट भाव को माया कहा जाता है । मायाचारी जीव के मन में वाणी में तथा उसके करने में अर्थात व्यवहार में भिन्नता होती है । (4) लोभ - पर-पदार्थ के प्रति उत्पन्न आसक्ति को लोभ कहा जाता है । मिथ्यात्व के कारण पर-पदार्थ या तो इष्ट (अनुकूल) या अनिष्ट (प्रतिकूल) अनुभव होते हैं मुख्यतया तभी कषाय उत्पन्न होती है ।
केवलणाण (योगसारु, 3)-केवलज्ञान । जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रमरहित हो, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुआ हो तथा समस्त पदार्थों को जाननेवाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
णिग्गथ (मयणपराजयचरिउ, 17) - निर्ग्रन्थ । जिसप्रकार जल में लकड़ी से की गई रेखा अप्रकट रहती है, इसीप्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकट हो और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही जिन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रकट होनेवाला है, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं ।
परमेट्ठी (कालस्वरूप कुलक 2.6) - परमेष्ठी । जो परमपद में तिष्ठता है वह परमेष्ठी कहलाता है । ये पाँच प्रकार के होते हैं, यथा - (1) अरहंत - जो गृहस्थपना त्यागकर मुनिधर्म अंगीकार कर निज स्वभाव-साधन द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षय करके अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीय) रूप विराजमान हुए वे अरहंत कहलाते हैं (2) सिद्ध - जो गृहस्थ अवस्था का त्याग कर, मुनिधर्म-साधन द्वारा चार घातिया कर्मों का नाश होने पर अनन्त चतुष्टय प्रकट करके कुछ समय बाद अघातिया कर्मों का नाश होने पर समस्त अन्य द्रव्यों का सम्बन्ध छूट जाने पर पूर्ण मुक्त हो गए हैं, लोक के अग्रभाग में किंचित् न्यून पुरुषाकार विराजमान हो गए हैं, जिनके द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से समस्त आत्मिक गुण प्रकट हो गए हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं (3) आचार्य - जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके मुनि संघ के नायक हों वे आचार्य कहलाते हैं । (4) उपाध्याय - द्वादशांग के पाठी जो समस्त शास्त्रों का सार आत्मस्वरूप में एकाग्रता कर उसमें लीन रहनेवाले तथा मुनिसंघ को पढ़ानेवाले परमेष्ठी उपाध्याय कहलाते हैं । (5) साधु - जो मुनिधर्म के धारक हैं और आत्मस्वभाव को साधते हैं तथा समस्त आरम्भ और अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह से परे ज्ञान-ध्यान में लीन रहनेवाले परमेष्ठी साधु कहलाते हैं ।
महव्वय (प्रकीर्ण, 15) - महाव्रत । हिंसादि पाँच पापों से सर्वदेश निवृत्ति होने को महाव्रत्त कहते हैं । ये पाँच प्रकार के कहे गए हैं - (1) अहिंसा - काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणस्थान, कुल आयु, योनि - इनमें सब जीवों को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है । (2) सत्य - ज्ञान और चारित्र की शिक्षा आदि के विषय में धर्मबुद्धि के अभिप्राय से जो निर्दोष वचन कहे जाते हैं वह सत्यधर्म कहलाता है । (3) अचौर्य - दूसरों के स्व का हरण न करने को अचौर्य अथवा अस्तेय कहते हैं । (4) ब्रह्मचर्य - जननेन्द्रिय, इन्द्रिय समूह और मन की शान्ति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है । (5) अपरिग्रह - बाह्य (आत्मा से अतिरिक्त वस्तुओ) में मन का सम्बन्ध न करने को अपरिग्रह कहा जाता है ।