________________
40
अपभ्रंश-भारती-2
(1) शुभयोग - यह पुण्य कर्म का आस्रव होता है (2) अशुभयोग - यह पाप कर्म का आसर होता है । 'राजवार्तिक' में पुण्य-पाप रूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहा गया है - पुण्यपापागम द्वार लक्षण आस्रवः । 'बृहद् द्रव्यसंग्रह' में आस्रव को दो भागों में विभाजित किया गया है -
आसवदि जेण कम्म परिणामेणप्पणे स विण्णेओ
भावासवो जिणुत्तो कम्मासवण परो होदि । (1) द्रव्यासव-ज्ञानावरणादिरूप कर्मों का जो आस्रव होता है, वह द्रव्यासव है । (2) भावासवजिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आस्रव होता है, वह भावास्रव कहलाता है । 'तत्त्वार्थसार' (4-2-4) में श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं -
काय वाङ्मनसा कर्मस्मृतो योगः स आस्रवः शुभः पुण्यस्य विज्ञेयो विपरीतश्च पाप्मनः सरसः सलिलवाहि द्वारमत्र जनैर्यथा तदास्रवण हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते आत्मनोऽपि तथैवैषा जिनर्योग प्रणालिका
कर्मास्रवस्य हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते । जिस प्रकार तालाब में पानी लानेवाला द्वार पानी आने का कारण होने से 'आसव' कहा जाता है, उसी प्रकार आत्मा की यह योगरूप प्रणाली भी कर्मास्रव का हेतु होने से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा आस्रव कही जाती है ।
कम्मट्ठ (करकंडचरिउ, 3.22) - आठ कर्म । जैन दर्शन में आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख है । इन्हें दो भागों में विभाजित किया गया है - यथा - (1) घातिया - जो जीव के अनुजीवी गुणों को घात करने में निमित्त होते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं । ये चार प्रकार के होते हैं - यथा - (क) ज्ञानावरणी - वे कर्म-परमाणु जिनसे आत्मा के ज्ञानस्वरूप पर आवरण हो जाता है अर्थात् आत्मा अज्ञानी दिखलाई देता है उसे ज्ञानावरणी कर्म कहते हैं । (ख) दर्शनावरणी - वे कर्म परमाणु जो आत्मा के अनन्त दर्शन पर आवरण करते हैं, दर्शनावरण कर्म कहलाते हैं । (ग) मोहनीय - वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शान्त आनन्द स्वरूप को विकृत करके उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा राग-द्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देते हैं, मोहनीय कर्म कहलाते हैं । (घ) अन्तराय - वे कर्म परमाणु जो जीव के दान, लाभ, भोग उपभोग और शक्ति के विघ्न में उत्पन्न होते हैं अन्तराय कर्म कहलाते हैं । (2) अघातिया - आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों वे अघातिया कर्म कहलाते हैं । ये चार प्रकार के होते हैं, यथा - (च) वेदनीय - जिनके कारण प्राणी को सुख या दुःख का बोध होता है, वेदनीय कर्म कहलाते हैं । (छ) आयु - जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिथंच, मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब जिस कर्म का उदय हो उसे आयु कर्म कहते हैं । (ज) नाम - जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय हो उसे नाम कर्म कहते हैं । (झ) गोत्र - जीव को उच्च या नीच आचरणवाले कुल में उत्पन्न होने में जिस कर्म का उदय हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं।