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________________ अपभ्रंश-भारती-2 35 डाल पर तो बैठती, अंगूर के मीठे फल तो खाती । आगे वह पुनः कहती है कि यदि मुझे स्त्री ही बनाना था तो राजकुमारी न बनाकर जाटनी क्यों नहीं बनाया ताकि अपने पति के साथ खेत में काम करती, सुन्दर ऊनी वस्त्र पहनती, ऊँचे घोड़े के समान अपने स्वामी के शरीर से अपना शरीर भिड़ाती, उन्हें सामने से लेती और हंस-हंस कर बातें पूछती । इसमें उन्मुक्त जीवन की आकांक्षा, नारी-जीवन की विवशता एवं राजमती का अनन्य अनुराग एक साथ द्रष्टव्य है । ऐसी प्रकृत भाव-भूमि पर खड़ी दूसरी नायिका फिर हिन्दी-साहित्य में नहीं देखी गयी । 'बीसलदेव रास' का भाषावैज्ञानिक एवं अन्य महत्त्व चाहे जो भी हो, उसका सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उसमें राजमती जैसा अपूर्व चरित्र प्रस्तुत किया गया है । राजमती का हिन्दी-साहित्य के नारी-चरित्रों में विशिष्ट स्थान है । बीसलदेव रास के अंत में कवि ने एक छंद में बीसलदेव एवं राजमती के सम्भोग का वर्णन किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि विरह का यह लहराता हुआ पारावार संयोग की वापी में जाकर खो गया है । जिनोदय सूरि विवाहलउ (मेरुनंदन) - इसका रचना काल 1375 ई. है । इसमें जिनोदय सूरि के आध्यात्मिक परिणय की कथा कही गयी है । जिनोदय सूरि के शैशव का नाम सोमप्रभ था । शैशव में ही एक दिन पालनपुर में जैनाचार्य जिनकुल सूरि के आगमन पर सोमप्रभ ने मुनिजी से दीक्षाकुमारी से विवाह करा देने की प्रार्थना की (अर्थात् दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की) । माता ने बहुत समझाया-बुझाया और तप की भयंकरता की भी बात कही पर बालक सोमप्रभ का मन किचित् नहीं डोला । अंत में ससमारोह यह आध्यात्मिक विवाह सम्पन्न हुआ । इस तरह इस खण्डकाव्य की कथा एक रूपक कथा है । हरिचन्द पुराण (जाखु मणयार) - इसकी रचना 1346 ई. में हुई । इसमें राजा हरिश्चन्द्र की पौराणिक कथा कही गयी है जिसमें कवि ने कई मौलिक प्रकरणों का भी समावेश किया है। इसमें भाषा की सफाई और लोक-काव्य की मधुरता दोनों है । इसकी भाषा में एक ओर यदि ब्रजी के औक्तिक प्रयोग हैं तो दूसरी ओर अपभ्रंश के अवशिष्ट रूप भी हैं । अतः भाषा एवं भाव दोनों ही दृष्टियों से यह लोक-जीवन के अति निकट है । इन प्राङ्मध्यकालीन खण्डकाव्यों के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि इनमें से 'सन्देश रासक और 'बीसलदेव रास' ही विशुद्ध खण्डकाव्य हैं जो संस्कृत के खण्डकाव्यों की परम्परा में हैं और जो परम्परा मध्यकाल में भी चलती रही है। प्रस्तुत लेख में विवेचित अन्य काव्य-ग्रंथ खण्डकाव्य के आसपास हैं ।
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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