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अपभ्रंश-भारती-2
लग गयी । वह उड़ीसापति के यहाँ जाकर सेवक बन गया । नवपरिणीता राजमती विरह में तड़पने लगी । अंत में उसने ब्राह्मण को दूत बना कर भेजा । उस समय उड़ीसा के दरबार में यह रहस्य खुला कि बीसलदेव अजमेर नरेश हैं । अतः उसने बहुत-से हीरे, रत्न आदि देकर बीसलदेव को विदा किया । बीसलदेव और राजमती का पुनर्मिलन हुआ ।
यह भी 'सन्देश रासक' की तरह एक विरह-काव्य ही है । राजमती आश्रय है और बीसलदेव आलम्बन । इस तरह इसमें भी नायिका राजमती की ही प्रधानता है । 'बीसलदेव रास' कथा-योजना के कारण ही नायिका-प्रधान नहीं हो गया है अपितु राजमती का व्यक्तित्व ही बीसलदेव से प्रबलतर है। बीसलदेव यहाँ एक पौरुषहीन नरेश के रूप में उपस्थित है । अपनी पत्नी की नीतिपूर्ण बात को ताना समझकर वह घर छोड़ देता है और जिस राजा का दृष्टांत राजमती ने उसके समक्ष रखा है, उसी के दरबार में जाकर सेवा करने लगता है । उसका यह आचरण क्षत्रियोचित कदापि नहीं है ।
इसके विपरीत राजमती नारी-सुलभ गुणों से युक्त स्वभाव की खरी और जबान की तेज नारी है। इसका प्रमाण उसने अनेक अवसरों पर दिया है । राजा ने जब मिथ्याभिमान में कहा कि मेरे समान दूसरा भूपाल नहीं है तो राजमती अपने खरे स्वभाववश इसका प्रतिवाद किये बिना न रह सकी । उसने कह ही तो दिया कि जिस तरह तुम्हारे राज्य में नमक निकलता है उस तरह उड़ीसाधिप के राज्य में हीरा निकलता है ।
बीसलदेव में पौरुष और स्वाभिमान की जो कमी है उसकी पूर्ति राजमती में हो गयी है । बीसलदेव जब उड़ीसा के राजा के यहाँ जाकर सेवक बनने के लिए प्रस्तुत होता है तो राजमती कहती है कि अर्थ-लोभ के कारण विदेश जाकर तुम कुल को कलंकित कर रहे हो और उसमें भी धन के लिए, जो धरती में गड़ा रह जाता है और मनुष्य परलोक चल देता है तथा जो संचय करनेवाले को ही ग्रास बनाता है ।
राजमती जब बीसलदेव को रोकने का सारा प्रयत्न कर हार जाती है तो वह सखियों से कहती है कि बीसलदेव महिपाल नहीं, महिषपाल (भैंस चरानेवाला) है । एक हिन्दू कुलवधू द्वारा पति के लिए ऐसा कथन अमर्यादित माना जाता है किन्तु जिस पृष्ठभूमि में और जैसे हीन- व्यक्तित्व नायक के लिए ऐसी बात कही गयी है कि यह तनिक भी नहीं खटकता । अतः इसमें लोकजीवन की स्वाभाविकता समझनी चाहिए ।
बीसलदेव राजमती के दूत भेजने पर लौटा है । राजमती को ही उसके समक्ष झुकना पड़ा है किन्तु राजमती के स्वभाव का खरापन तब भी नहीं गया । वह बीसलदेव से कहती है कि तुम राजमती-जैसी रमणी का संयोग छोड़ कर परदेश चले गये, अर्थात् किया तुमने घी का व्यापार लेकिन खाया तेल ही । किन्तु एक ओर जहाँ उसमें दर्पयुक्त खरापन है वहीं दूसरी ओर उसमें स्त्री-सुलभ विनम्रता और कातरता भी है । उसके लाख अनुनय-विनय करने पर भी बीसलदेव जब उड़ीसा जाने के लिए उद्यत हो ही जाता है तो राजमती सखियों से अपने विषय में कहती है कि मैं हेड़ाउ के उस घोड़े की तरह उपेक्षिता हूँ जिस पर वह सौ-सौ दिनों तक हाथ नहीं फेरता ।
उसकी स्त्री-सुलभ दीनता चरम सीमा पर उस समय पहुँचती है जब भगवान् शिव को राजकुल में जन्म देने के लिए कोसती है । वह उनसे कहती है कि तुमने स्त्री का जन्म क्यों दिया, वन की नीलगाय क्यों नहीं बनाया । अगर मुझे काली कोयल ही बनाते तो आम और चम्पा की